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* शिवमहिम्नस्तोत्रम् के तवैश्वर्यं यत्नाद्यदुपरि विरचिहरिरथः परिच्छेत्तं यातावनलमनिलस्कन्धवषुपः । ततो भक्तिश्रद्धाभरगुरुगृणद्भ्यां गिरिश ! यत् स्वयं तस्थे ताभ्यां तव किमनुवृत्तिर्न फलति ॥१०॥ ___ हे गिरिश ! (गिरि में शयन करने वाले ) तेजपुञ्ज आपकी विभूति को ढूँढ़ने के लिए ब्रह्मा आकाश तक और विष्णु पाताल तक जाकर भी उसे पाने में असमर्थ रहे । तत्पश्चात् उनकी कायिक, मानसिक और वाचिक सेवा से प्रसन्न होकर आप स्वयं प्रकट हुए, इससे यह निश्चय है कि आपकी सेवासे ही सब सुलभ है ॥ १० ॥ रयत्नादापाद्य त्रिभुवनमवैरव्यतिकरम् दशास्यो यद्बाहूनभृत रणकण्डूपरवशान् । शिरः पद्मश्रेणी रचितचरणाम्भोरुहबलेः स्थिरायास्त्वद्भक्तेस्त्रिपुरहरविस्फूर्जितमिदम्।।११॥ ___हे त्रिपुरहर ! मस्तकरूपी कमल की माला को जिस रावण ने आपके कमलवन चरणों में अर्पण करके त्रिभुवन को निष्कण्टक बनाया था तथा युद्ध के लिए सर्वदा उत्सुक रहने वाली भुजाओं को पाया था, वह आपको अविरल भक्ति का ही परिणाम था ॥११॥
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