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ल ज्ञान घबेह || शिव सुख वरिया अमल खदेह, पूर्णानंदीरे गुरु लघु यवगाह ॥ अज अनिवासी निजगुण जोगी बाद, निज गुण करता रे पर पु जल नहीं चाह || वीर० ॥ ४ ॥ तेणे प्रगटयुं पुंम रिकगिरि नाम, सांनलो सोहम देवलोक स्वाम || एनो महिमा यतिहि नद्दाम, इो दिन कीजे रे तप जप पूजाने दान ॥ व्रत वली पोसो रे जेह करे नि दान, फल तस पामेरे पंच कोडी गुण मान ॥ ॥ वीर० ॥ ५ ॥ नक्तें नव्य जीव जे होय, पंच नवें मुक्ति लहे सोय || तेहमां बाधक बे नही कोय, व्यव हार केरीरे मध्यम फलनी ए वात ॥ उत्कृष्टे योगेंरे यं तरमूहूर्त विख्यात, शिव सुख साधेरे निज प्रातमने यवदात ॥ वीर० ॥ ६ ॥ चैत्री पूनम महीमा देख, पूजा पंच प्रकार विशेष ॥ कीजे नही कमि कांइ रेख, इणीपरे नांखेरे जिनवर उत्तम वाण ॥ सांजली बू ज्यारे केइक नविक सुजाण, इलीपरे गायारे पद्म विजय सुप्रमाण || वीर० ॥ ७ ॥ इति ॥ स्तवनं ॥ ॥ अथ श्री शत्रुंजय स्तुति ||
॥ श्रीशत्रुंजय मंगण, कूपन जिणंद दयाल || मरुदेवा नंदन, वंदन करूं त्रस्य काल ॥ ए तीरथ
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