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इससे परमेष्ठी को नमस्कार किया जानना । और आगम भाव निक्षे पकर जब आत्मा जिसका ज्ञाता होता है तब वह उसी स्वरूप कहलाता है । इससे अईन्तादिक के स्वरूप को शेय रुप करने वाला जीवात्मा भी अर्हन्तादि स्वरुप हो जाता है। और जव यह निरन्तर ऐसाही बना रहै है तब समस्त कर्मक्षय रूप शुद्ध अवस्था (मुक्त ) हो जाती है। जो समस्त जीवोंको संबोधन करने में समर्थ है सोहन है भार्थात् जिसके ज्ञान दर्शन सुख वीर्य परिपूर्ण निरावरण होजाते हैं सोही अर्हन्त हैं । सर्व कर्मों के क्षय होने से जो मोक्ष प्राप्त होगया हो सो सिद्ध हैं। शिक्षा देनेवाले और पांच आचारों को धारण करने वाले आचार्य है। श्रुतज्ञानोपदेशक हो तथा स्वपरमत का ज्ञाता हो सो उपाध्याय हैं । रत्नत्रय का साधन करें सो साधु हैं।
संमत्तं संणाणं सच्चारित्तं हिंसत्तवं चैव ।। चउरो चिट्ठइ आदे तह्मा आदा हुमेसरणं ।। १०५
सम्यक्त्वं सज्ञानं सचारित्रं हि सत्तपश्चैव ।
चत्वारो तिष्ठति आत्मनि तस्मारामास्फुटं में शरणम् ॥
अर्थ-सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यकचारित्र और सम्यकतपयह चारों आत्मा में ही तिष्टे हैं तिससे आत्माही मेरे शरण है। भावार्थ । दर्शन शान घरित्र और तप ये चारों आराधना मुझे शरण हो! आत्मा का श्रद्धान आत्माही करे हैं आत्मा का शान आत्मा ही करे है आत्मा के साथ एकमेक भाव आत्माकाही होता है और आत्मा आत्मा में ही तपे है वही केवल मानेश्वर्य को पावे है ऐसे चारों प्रकार कर आत्मा कोही ध्यावे इससे आत्माही मेरा दुःख दूर करने वाला है आत्माही मंगल रूप है ॥
एवं जिणं पणत्तं मोक्खस्यय पाहुंद सुभत्तीए । जो पढइ सुणइ भावई सो पावइ सासयं सोक्खं ।। १०६
एवं जिन प्रज्ञप्तं मोक्षस्यच प्राभृत सुभक्त्या। य पठति श्रगोति भावयति स प्राप्नोति शास्वत्तं सौख्यम् ।।
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