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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३६ ) मिथ्यादृष्टिः यः स संसारे संसरति सुखरहितः। जन्मजरामरण प्रचुरे दुःखसहश्राकुले जीवः ।। अर्थ--जो मिथ्या दृष्टि प्राणी हैं वह जन्म जरा और मरण की अधिकता वाले इस चतुर्गति रूप संसार में सुखरहित भ्रम हैं और वह संसार हज़ारो दुःख से परिपूर्ण है। सम्मगुण मिच्छ दोसो मणण परि भाविऊण तं कुणसु । जं ते मणस्स रुच्चइकिं वहुणा पलवि एणंतु ॥१६॥ सम्यक्त्वं गुणः मिथ्यात्वं दोषः मनसा परिभाव्य तत्कुरु । यत्ते मनसि रोचते किं वहुना प्रलपितेन तु ॥ अर्थ-भो भव्य ! सम्यग्दर्शन तो गुण अर्थात् उपकारी है और मिथ्यात्व दोष है, ऐसा विचार करो पीछे जो तुम्हारे मन में रुचे तिसको ग्रहण करो बहुत बोलने से क्या । वाहिर संग विमुक्को णविमुक्को मिच्छभाव णिगंथो। किं तस्स ठाण मौणं णवि जाणदि अप्प सम भावं ॥१७॥ वाह्य संग विमुक्तः न विमुक्तः मिथ्या भावेन निम्रन्थः । किं तस्य स्थानं मौनं नापि जानाति आत्मसम भावम् ।। अर्थ-जो वाह्य परिग्रह से रहित है परन्तु मिथ्यात्व भावों से नहीं छूटा है उस निर्ग्रन्थ वेषधारी के कायोत्सर्ग और मौन व्रत कर ने से क्या साध्य है अर्थात् कुछ भी नहीं वह आत्मा के समभाव को ( वीतराग भाव को) नहीं जाने है। भावार्थ-विना अन्तरङ्ग सम्यक्त्व कोई भी वाह्य क्रिया कार्य कारी नहीं। मूल गुणं छितूणय वाहिर कम्मं करेइ जो साहु । सोणलहइ सिद्धसुहं, जिण लिंग विराधगो णिच्चं ॥९॥ मूलगुणं छित्वा वाह्य कर्म करोति यः साधुः । स न लभते सिद्धिसुखं जिनलिङ्ग विराधकः नित्यम् ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
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