SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १३५ ) कुच्छियदेवं धम्म कुच्छिय लिंगंच वंदए जोदु । लज्जा भयगारवदो मिच्छादिट्टी हवे सोहु ॥१२॥ कुत्सितदेव धर्म कुत्सितलिङ्गं च वन्दते यस्तु । लज्जा भय गारवतः मिथ्यादृष्टि भवेत् सस्फुटम् ।। अर्थ-खोटेदेव (रागीद्वेषी ) खोटा धर्म (हिंसामयी) और खोटे लिङ्ग (परिग्रही गुरु ) को लज्जा कर भयकर अथवा वडप्पन कर जो वन्दे हैं नमस्कार करें हैं ते मिथ्यादृष्टि जानने । सवरावेखं लिंग राईदेवं असंजयं वंदे । माणइ मिच्छादिट्टी गहुमाणइ सुद्ध सम्पत्तो ॥१३॥ स्वपरापेक्ष लिङ्ग रागिदेवम् असंयतं वन्दे । ___ मानयति मिथ्यादृष्टिः न स्फुटं मानयति शुद्धसम्यक्त्वः ॥ अर्थ-स्वापेक्ष लिङ्ग को ( अपने प्रयोजन की सिद्धि के अर्थ अथवा स्त्री सहित होकर साधु वेश धारण करने वाले को) और परापेक्षलिङ (जो किसी की ज़बरदस्ती से वा माता पितादि के चढ़ाने से वा राजा के भय से साधु हो जाव) को में वन्दना करता हूँ तथा रागीदेवों को में बन्दू हूं अथवा समय रहित (हिंसक) देवताओं) को वन्दना करु हूं ऐसा कहकर तिन को माने है सो मिथ्यादृष्टि है । जो ऐसे को नहीं मानता है वह शुद्ध सम्यग्दृष्टी है ।। सम्माइट्टीसावय धम्म जिणदेव देसियं कुणदि । विपरीयं कुव्वंतो मिच्छादिही मुणेयव्वो ॥१४॥ सन्यग्दृष्टिः श्रावकः धर्म जिनदेवदोशतं करोति । विपरीतं कुर्वन् मिथ्यादृष्टिः ज्ञातव्यः ।। अर्थ-भो श्रावको ! जो जिनेन्द्र देव के उपदेशे हुवे धर्मको पालता है वह सम्यग्दृष्टि है और जो अन्य धर्म को पालता है सो मिथ्या दृष्टी जानना । मिच्छादिट्ठी जो सो संसारे संसरेइ सुहरहिओ। जम्मजर मरणपउरे दुक्खसहस्साउले जीवो ॥१५॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020699
Book TitleShatpahud Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundakundacharya
PublisherBabu Surajbhan Vakil
Publication Year1910
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, P000, & P001
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy