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धर्मदासगणि रचित उपदेशमाल सिद्धांत ॥ श्रमण श्राद्ध मानै सवी, पठे पाठवे खांत ॥१६॥ मान मोह भूते छल्या, अधम केइ किरियाय ॥ तेह मालने हीलता, न गणे भव दुःख भाय ॥९७॥ एक मर लघु भूपनी, आण भंगथी थाय ॥ सुं वली त्रिभुवन भूपनी, आण हणे कहेवाय ॥ ९८ ॥ जगहितकर जिनवर वचन, ते कारण भविलोय ॥ तास विराधे धर्म किम, जीवदया किम होय ॥१९॥ सूत्र रहित दर्शी अधिक, क्रिया तणो मंडाण ॥ ऋजु रंजण मुनि हीलवा, फिरे मूढगत त्राण ॥१०॥ शुदधर्मकू जो दीए, सो जिनराजन और ॥ सुरतरु समतरुअन्य क्या ! होय कहो किण ठौर॥१०॥ जे गुण दोष अज्ञान ते, किम बुध बुध होय ॥ अथवा ते बुध होय तो, सम विष अमृत दोय ॥१०२ मूल जिनेश्वर तवचन, गुरु जन गाढा सैन ॥ शेष पाप थानक तजू, निज परनो दिन रैन ॥ १०३ ॥ राग रोस किन ऊपरे, नहि हमने छे एक ॥ धर्म हेत जिन आण रत, छे गुरु और विवेक ॥ १०४॥ निज पर गुरु न करे कदा, तत्व ज्ञात गत गर्व । जैन वचन मणी मंडणे, मंडीत ते गुरु सर्व ॥१०॥ शुद्ध पुन्ययुत सजन जन, तसुं जइये बलिहार ॥ जसु लघु संगमथी हुवे, धर्मबुद्धि विस्तार ॥१०॥ केइ आज पिण आकरा, दीसे गुणि गुरु शुद्ध ॥ प्रभु जिनवल्लभ सारिखो, वलि जिन वल्लभ बुद्ध । गुरु जिनवल्लभ वचनथी, उलसै सम्म न जास। हरै घूककी अंधता, कैसे भानु प्रकाश ॥१०८॥ मरता जग जन जोइने, जे न करै वस मन्न ॥ पापथकी विरमे नही, ते नर धीठ अधन्न ॥१०९॥
SABALASAHES
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