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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४॥
१ स्थानाध्ययने स्थानोनुं स्वरूप
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आश्रयं होवाथी स्थान ते द्रव्य स्थान. ते कारणथी कर्मधारय छे. ४. क्षेत्र-आकाश, द्रव्योनो आश्रय होवाथी क्षेत्र एवं जे स्थान ते क्षेत्रस्थान. ५. अध्ध-काल ते ज स्थान, ते वे प्रकारनो छे.१ भर्वस्थिति ते भावकाल अने २ कार्यस्थिति ते कायकाल, स्थिति एज स्थान. ६. ऊर्ध्वपणाए जे पुरुषनुं स्थान ते ऊर्ध्वस्थान-कायोत्सर्ग. अहिं स्थान शब्द क्रियावचन छे एवी रीते ऊर्ध्व शब्दना उपलक्षणथी बेसबु, मूवू वगेरे पण स्थान जाणवू. ७. उपरति-विरति, विविध गुगोनो आश्रय होवाथी विरति ज स्थान छे अथवा अहिं स्थान शब्द विशेषार्थमां छे. तेथी विरतिनो जे विशेष ते विरतिस्थान ते देशविरति अने सर्व विरतिरूप छे तेम. ८. वसति-स्थान कहेवाय छे. जेमां स्थिर थवाय छे ते स्थान. ९. संयमनुं स्थान ते संयमस्थान. अहिं स्थान शब्दभेद अर्थवालो छे. संयम-शुद्धिनी वृद्धि अने हानिथी थयेल विशेषभेदरूप (असंख्यात) संयम स्थान. १०. प्रगह-आदेयवचन होवाथी जेर्नु वचन मान्य थाय ते नायक. ते बे प्रकारना छे-१ लौकिक अने २ लोकोत्तर. तेमां लौकिक राजा, युवराज, महत्तर (श्रेष्ठ पुरुष), प्रधान अने कुमाररूप छे अने लोकोत्तर आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर अने गणावच्छेदकरूप छे. तेनुं जे स्थान ते प्रगहस्थान. ११. योधाओनुं स्थान-१ आलीढ, २ प्रत्यालीढ, ३ वैशाख, ४ मंडल अने ५समपादरूप शरीरनुं विशेप न्यासरूप योध. स्थान. १२. अचलत्व लक्षणवालो जे धर्म ते सादि सपर्यवसित (अंत सहित) इत्यादि चतुभंगरूप छे, तेनुं जे स्थान ते अचलता
१. भवस्थिति ते मनुष्यादि भवना आयुष्यनो स्थिति सुधो रहेवू ते.
२. मनुष्यादिना शरीरमांधी मरीने पुनः ते न कायमा उत्पन्न थर्बु ते कायस्थिति. जेम मनुष्यनी कायस्थिति उत्कृष्टी त्रण पल्योपम | ने क्रोडपूर्व पृथक्त्व होय छे.
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