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आ गाथाना भावार्थ कहवाई गयो छे. अहिं समाधान -नारकादि पर्यायरूप संसारनो अभाव छते अर्थान्तर न होवाथी नारकादि पर्यायस्वरूपनी जेम सर्वथा जीवनो अभाव ज छे तेम जे कहेवुं ते अयुक्त छे, कारण अनर्थान्तर हेतु, अनैकान्तिक छे. कारण ? सुवर्ण अने मुद्रिकानुं अनर्थान्तरपणुं सिद्ध छे पण मुद्रिका ( वींटी )ना आकारनो नाश थये छते सोनानो नाश थतो नथी, तेनी माफक नरकादि पर्याय मात्रनो नाश थये छते सर्वथा जीवनो नाश थशे नहि. भाष्यकार कहे छे के:न हि नारगादिपज्जायमेत्तनासंमि सव्वहां नासो । जीवद्दव्वस्स मओ, मुद्दानासेव्य हेमस्स ॥६३॥
o गाथान भावार्थ कट्टेल छे. वळी पण भाष्यकार कहे छे के
कम्मकओ संसारो, तन्नासे तस्स जुज्जए नासो । जीवत्तमकम्मकयं, तन्नासे तस्स को नासो ? ॥ ६४ ॥
संसार कर्मकृत छे तेथी कर्मनो नाश थये संसारनो नाश घटे छे, पण जीवपणुं कर्मकृत नथी एटले कर्मनो नाश थये छते जीवनो नाश केवी रीते थाय ? अर्थात् न ज थाय. (सू० १०) मोक्ष पुण्यपापनो क्षय थवाथी थाय छे माटे पुण्य-पापनुं स्वरूप कहेवा योग्य छे. तेमां पण मोक्ष अने पुण्यना शुभ स्वरूपनुं साधर्म्य होवाथी प्रथम पुण्यनुं स्वरूप कहे छे- 'एगे पुणे' 'पुण्' धातु शुभ अर्थमा छे. पुणति-शुभ करे छे अथवा ' पुनाति ' आत्माने पवित्र करे छे, माटे पुण्य शुभ कर्म छे. सातावेदनीय वगेरे तेनां वेतालीश प्रकारो छे. यथोक्तम्
सायं उच्चागोयं, नरतिरिदेवाउ नाम एयाउ । मणुयदुगं देवदुगं, पंचेंदियजाति तणुपणगं ॥ ६५ ॥
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