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ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय अने अंतराय. (सू० २२६ ) अभिजित् नक्षत्रना व्रण तारा छे, एवी रीते श्रवण, अश्विनी, भरणी, मृगशिर, पुष्य अने जेष्ठा ए छ नक्षत्रना पण त्रण त्रण तारा हे. (सू० २२७) धर्मनाथ अरिहंत ( ना मोक्ष ) थी शांतिनाथ अरिहंत, पोणो पल्योपम ? न्यून त्रण सागरोपम काळवडे (काळ गये छते ) समुत्पन्न - मोक्ष गया (सू० २२८) श्रमण भगवान् महावीरने यावत् त्रीजा पुरुष सुधी (जंबूस्वामी पर्यंत ) युगांतकृतभूमि-मोक्षमार्ग चाल्यो, श्री मल्लिनाथ भगवान् त्रणशें पुरुषोनी साथे मुंड थई दीक्षित था, एवी रीते श्री पार्श्वनाथे त्रणशें पुरुषो साथै दीक्षा लीधी. (सू० २२९) श्रमण भगवान् महावीरने त्रणरों चौदपूर्वीओनी उत्कृष्टी संपदा हती, ते केवा प्रकारना हता ते संबंध कहे छे । के जिन नहिं पण जिन सरखा, सर्व अक्षरना सन्निपात(संयोग) ने जाणनारा अने जिननी माफक अवितथ-यथार्थ कहेनारा एवा चौदपूर्वीओ हता. ( २३०) त्रण तीर्थंकरो चक्रवर्ती हता, ते आ-शांतिनाथ, कुंथुनाथ अने अरनाथ. (सू० २३१)
टीकार्थ :- 'खीणे' त्यादि० क्षीणमोह-नाश पामेल छे मोहनीय कर्म जेने एवा अरिहंतने त्रण कर्मा शो-कर्मप्रकृतिओ समकाळे क्षय पामे छे. कं छे के
चरमे नाणावरणं, पंचविहं दंसणं चउर्विगप्पं । पंचविहमंतरायं, खबइत्ता केवली होइ ॥ २३९ ॥
१. अहि समुत्पन्न' शब्दनो रूढ अर्थ जन्म पाम्या, ए अर्थ घटतो नथी, कारण के तेवो अर्थ करवाथी 'अंतरा' नहीं मळे. विशेष जिज्ञासु प्रवचनसारोद्धार विगेरे जो.
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