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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्ग छत्र सानुवाद ।। ३१६ ॥ www.kobatirth.org सुक्खाते णं भगवता धम्मे पन्नत्तै । सू० २१७ मूलार्थः - त्रण प्रकारे गौरव - भारीपणुं के अभिमान कहेल छे, वे आ प्रमाणे - ऋद्विगौरव - राजादिकनी पूजाथी थयेल अभिमानरूप, रसगौरव - मधुर रस विगेरे मळवाथी थयेल अभिमान अने सातगौरव -सुख मळवाथी थयेल अभिमान (सू० (२१५) त्रण प्रकारे करण - क्रियाअनुष्ठान कहेलं छे, ते आ प्रमाणे- धार्मिक करण - साधुनी क्रिया, अधार्मिक करण-अविरतिमिथ्यादृष्टिनी क्रिया अने धार्मिकाधार्मिक करण- देशविरतिनी क्रिया (सू० २१६) श्री सुधर्मास्वामी श्री जंबूस्वामीने कहे छे के-भगवान् महावीरे त्रण प्रकारे धर्म अनुष्ठान कहेल छे, ते आ प्रमाणे- सुअधित-काल, विनयादि आराधनावडे भणेलं सुध्यान-सारी ते सूत्रना अर्थनुं मनन करेलुं अने सुतपसित-आशंसा (वांच्छा ) रहित सारी रीते तप अनुष्ठान करेलं. ज्यारे सारी रीते अध्ययन करेलुं होय त्यारे श्रुतना अर्थनुं सारुं मनन ( चिंतन ) थाय छे, ज्यारे सारी रीते चिंतन करेलुं होय छे त्यारे सारी रीते तपसित थाय छे. ते सुअधित, सुध्यात अने सुतपसितता-ए त्रण प्रकारे धर्म भगवाने सारी रीते कहेलो छे. (सू० २१७) टीकार्य :-' तओ गारवेत्यादि० सुगम छे. विशेष ए के - गुरु-मोटाई के भारेपणानो भाव अथवा कार्य ते गौरव, ते बे प्रकारे छे-१ द्रव्यथी वज्रादिनुं अने २ भावथी अभिमान अने लोभरूप अशुभ भाववाळा आत्मानुं, भावगौरवण प्रकारे छे. राजा विगेरेथी करायेली पूजास्वरूप अथवा आचार्यत्वादि स्वरूप ऋद्धिथी अभिमानादि द्वावडे जे गौरव ते ऋद्विगौरव, ऋद्धिनी प्रातिथी अभिमान अने अप्राप्त नहिं पामेलनी प्रार्थनाद्वारा जे आत्मानो अशुभ भाव ते भावगौरव, आ अर्थ छे. एवी For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ३ स्था काध्ययने उद्देशः ४ श्रीणि गार वेत्यादीनि २१५ २१७ सूत्राणि ।। ३१६
SR No.020691
Book TitleSthanang Sutram Sanuvadasya
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorAbhaydevsuri
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages377
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size19 MB
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