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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद 1३०८॥ ३ स्थानकाध्ययने उद्देशः४ कल्पस्थितिः २०६ सूत्रम् XXXXXXXXXxxxxxxxxxx एटले व्यापार ज्यारे होय छे त्यारे जिनकल्पिक चारित्रने स्वीकारे छे. धिइवलिया तवसूरा, नितीगच्छाउ ते पुरिससीहा । बलवीरियसंघयणा, उवसग्गसहा अभीरुया ॥ धैर्यबलवाला अने तपमा शूरा-छमास पर्यंत तप करनारा ते पुरुषसिंहो गच्छमाथी नीकळे छे, वळी बल, वीर्य अने संघयण(मजबूत)वाळा, उपसर्ग सहन करवावाळा तथा भय रहित होय छे. स्थविरो-आचार्यादि गच्छमा रहेला, तेओनी कल्पस्थिति ते स्थविरकल्पस्थिति. ते आ प्रमाणेपव्वजो सिक्खोवय-मत्थंगहणं च अनियओवासो। निष्फत्ती च विहारो, सामायारी ठिई चेव॥२१०॥ पहेला प्रव्रज्या कहेवी, त्यारपछी शिक्षापद, पछी व्रतो, पछी सूत्रना अर्थनुं ग्रहण, पछी अनियतवास-नाना | प्रकारना देशर्नु वताव, त्यारपछी शिष्योनी निष्पत्ति, त्यारपछी विहार, त्यारपछी जिनकल्प प्रतिपन्ननी सामाचारी अने बीजाने तेमांज स्थिति. (आ बृहत्कल्पमां द्वार गाथा छे) अहिं सामायिक छते छेदोपस्थापनीय होय छे तेमां होते छते परिहारविशुद्धिक भेदरूप निर्विशमानक, त्यारपछी निर्विष्टकायिक, त्यारपछी जिनकल्प अथवा स्थविरकल्प होय छे माटे सामायिककल्पस्थिति विगेरे ये सूत्रनु क्रमवडे स्थापन करे छे (२०६). कहेल कल्पनी स्थितिनुं उल्लंघन करनारा नारकादि शरीरवाळा थाय छे, माटे|* नारकादिना शरीरनु निरूपण करवा माटे कहे छे. नेरइयाणं ततो सरीरगा पं० सं०-वेउव्विते तेयए कम्मए, असुरकुमाराणं ततो सरीरगा पं० HAKXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only
SR No.020691
Book TitleSthanang Sutram Sanuvadasya
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorAbhaydevsuri
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages377
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size19 MB
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