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श्रीस्था
नाङ्ग-सूत्र
सानुवाद
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मध्यमथी छठ अने जघन्यथी एक उपवास करे छे. पारणे आंबेल करे छे. तथा सात पिंडैषणामां पहेली वे छोडीने पांचनुं ग्रहण होय छे, तेमां पण एक भक्तमां अने एक पाणीमां ग्रहण करवानो विवक्षितादिने अभिग्रह होय छे. 'निर्विष्टा'- सेवेल विवक्षित चारित्रवाळा अर्थात् अनुपरिहारको तेना कल्पनी स्थिति आ प्रमाणे जाणवी - दररोज आंबिल मात्र तप अने भिक्षामां पहेली बे पिंडेपणा छोडीने शेष पांचनुं ग्रहण, तेमां पण एक अमुक भक्तनी ने एक पाणीनी एम वे विवक्षित ग्रहण करे; शेष नहिं, कां छे के
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कपट्टियावि पइदिण, करेंति एमेव चायामं ॥ २०५ ॥
कल्पमा रहेला पण एवी रीते ज प्रतिदिन आंबिल करे छे. तेओनो- परिहारविशुद्धिकोनो नव जणानो गण ( समुदाय ) होय छे. ते आ प्रकारे होय छे
सव्वे चरितवंतो उ, दंसणे परिनिट्टिया । नवपुव्विया जहन्नेणं, उक्कोसा दसपुब्विया ॥ २०६ ॥ पंचविहे ववहारे, कप्पंमि दुविहंमि य । दसविहे य पच्छित्ते, सव्वे ते परिनिट्टिया ॥ २०७ ॥
सर्वे निर्विशमानको अने निर्विष्टकायिको - परिहारविशुद्धिको सम्यक्त्वमां परिनिष्ठित अर्थात् निश्चल समतिवाळा होय छे, जघन्यथी नव पूर्ववाळा एटले नवमा पूर्वनी त्रीजी वस्तुना अध्ययनवाळा अने उत्कृष्टथी दश पूर्वी होय छे तथा पांच प्रकारना व्यवहारमा अवस्थित अने अनवस्थित ए वे प्रकारना कल्पमां तेमज दश प्रकारना प्रायश्चित्तमां परिनिष्ठित
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३ स्थानकाध्ययने
उद्देशः ४ कल्पस्थि
तिः २०६
सूत्रम्
।। ३०७ ॥