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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ।। १५८ ।।।। www.kobatirth.org माटे कहे छे- 'जीवाण' मित्यादि० अथवा पूर्व सूत्रनी बीजी रीते व्याख्या करीने आनो संबंधांतर कराय छे. सामान्यथी बंध बे प्रकारे छे, प्रेमथी अने द्वेषथी. ते ते बंध तो अनिवृत्ति अने सूक्ष्मसंपराय पर्यंत गुणठाणावाळा जीवाने आश्रयीने जाणवो. अने जे उपशांतमोह, क्षीणमोह अने सयोगी गुगठाणावाळाने बंध छे ते फक्त योगप्रत्ययवाळो ज छे. तेनी बंधपणाए विवक्षा करी नथी, केमके बंधने पण शेष कर्मबंधना विलक्षग (जुड़ी रीते) पणाथी अबंध कल्प ( समान) छे. जे कर्मनो (सातावेदनीयनो ) आ बंध छे ते अल्पस्थितिक वगेरे विशेषण युक्त छे. कबुं छे के अयं बायर मउयं, बहुं च रुक्खं च सुक्किलं चेव मंदं महव्वयं तिय, सायाबहुलं च तं कम्मं ॥ ११९ ॥ योगप्रत्ययिक कर्म अल्प, बादर, कोमळ, घणुं, ऋक्ष, शुभ्र, मंद, महाव्ययवाळु अर्थात् घणी निर्जरावाळं अने बहु सातावाळं होय छे. स्थितिवडे अल्प (बे समयनी) स्थितिवाळु, परिणामथी बादर, विपाकवडे कोमल, प्रदेशोवडे घणुं, वालुका(रेती) नी माफक लेपथी मंद, सर्वथा नाश थवाथी महाव्ययवालुं छे. ए ज बतावता थका कहे छे- 'जीवा ण'मित्यादि० जीवो सत्वो ('णं' वाक्यालंकारमां छे) वे स्थानथी- कारणथी पाप-अशुभ भवना निबंधनपणाथी अशुभ छे, पण निरनुबंध नथी, कारण के वे समयनी स्थितिवाळं कर्म अत्यंत शुभ छे, तेनो मात्र योग निमित्त छे, बांधे छे एटले राग अने द्वेषरूप कषायडेज स्पृष्टादि (आत्मानी साये ऐक्यतादि ) अवस्था करे छे. शंका- मिध्याल, अविरति कवाय अने योग ए चार बंधना १. नवमुं अनिवृत्ति अने दशभुं सूक्ष्मसंपराय गुणठाणं छे, तदुपरांत वीतरागगुणठाणा छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ******* २ स्थान काध्ययने उद्देशः ३ जीवस्य बद्धमुक्त भेदो १९६ सूत्रम् ।। १५८ ॥
SR No.020691
Book TitleSthanang Sutram Sanuvadasya
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorAbhaydevsuri
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages377
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size19 MB
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