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जेम आहिताग्नि (ब्राह्मण ) अनेक प्रकारनी आहुति (घृतादिनो प्रक्षेप) अने अग्नये स्वाहा ईत्यादि मंत्रपदोवडे अभिषेक करायेल अग्निने नमन करे छे तेम अनंतज्ञाननो प्राप्त थयो थको शिष्य पण आचार्यने विनयवडे सेवे. अथवा 'आउसंतेणं' ति-आजुषमाणेन-श्रवणविधिनी मर्यादावडे गुरुओनी आसेवनाथी. ए शब्दबडे पण एम सूचन कर्यु छे के शास्त्रोक्त विधिवडे योग्य स्थाने रहेल शिष्ये गुरु पासेथी सांभळवू जोईए, जेम तेम नहिं सांभळg. कहुं छे केनिद्दाविगहापरिवजिएहिं गुत्तेहिं पंजलिउडेहिं । भत्तिवहुमाणपुव्वं, उवउत्तेहिं सुणेयव्वं ॥३७॥
निद्रा अने विकथाने छोडीने, त्रण योगने काबमा राखीने, अंजली जोडीने, भक्ति अने बहुमानपूर्वक, जेम थाय तेम एकचित्ते उपयोगपूर्वक सांभळg जोइए. (३७.) एवीरीते पदनो अर्थ कहेवायो. पदविग्रह एटले समास सहिन पद, ते आख्यात आदि पदोमां दर्शावेल छे. हवे चालना (तर्क) अने प्रत्यवस्थान (समाधान) ते बंने शब्दथी अने अर्थथी कहे छे. तेमां शब्दथी ननु (शंका) मे आ शब्दनो मम अने मां-छट्ठी अने चोथी विभक्तिनो एकवचनांत छ, अस्मद् शब्दने मे आदेशथी मे-मह्यं व्याख्यान करवा योग्य छे. अहिं ग्रंथकार समाधान करे छे के 'मे' तृतीयाना एकवचनांत विभक्तिनो प्रतिरूपक आ अव्यय, अस्मद् शब्दना अर्थमां छे माटे दोष नथी. अर्थथी तो चालना (शंका ) वस्तु नित्य छे के अनित्य छे ? नित्य होय तो अप्रच्युत (नाश रहित ) उत्पन्न न थयेल, केवल स्थिररूप नित्यनो लक्षण होवाथी जे भगवाननी समीपमा सांभळवापणानो स्वभाव (हतो ) ते ज स्वभाव शिष्यने उपदेशपणामां केम संभवे ? वळी आनो (श्रोतानो ) पहेला स्वभावना त्यागमा अथवा
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