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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org KOKM श्रीस्था- Xभरतादि क्षेत्रोना अंतरोमां वर्षधर पर्वताने स्थापीने, ते आ प्रमाणे X२ स्थानका नाङ्गसूत्र | हिमवंत १ महाहिमवंत २,पव्वया निसढ ३ नीलवंताय शरुप्पी ५सिहरी ६ एए.वासहरगिरी मुणेयव्वा।३८ ध्ययने सानुवाद || १ लघुहिमवान ,२ महाहिमवान .३ नेपध.४ नीलवान.५ रुकमी अने ६ शिखरी-ए छ वर्षधर पर्वतो प्रज्ञापकनी अपेक्षाए उद्देशः ३ ॥ ११८ ।। क्रमथी व्यवस्थित जाणवा. एवी रीते सर्व जाणवं. मेरुपर्वतनी उत्तर अने दक्षिण दिशामां (अहिं उत्तरदक्षिणयोः ए वाक्यमां | भरतादि 'एन' प्रत्ययना विधानथी उत्तरदक्षिणेन आ रूप थाय छे.) जिनेश्वरोए बे क्षेत्र कहेल छे. समतुल्य समान अर्थवाळो छ, क्षेत्रस्वरूपम् प्रमाणथी अत्यंत समतुल्य छे. अविशेष-पर्वत, नगर अने नदी वगैरेथी करेल विशेष रहित, अनानात्व-अवसर्पिणी वगेरेथी ४ ८६ सूत्रम् करल आयुष्यादि भावना भेदथी वर्जित. (आ कथननु तात्पर्य शं छे ?) एटला माटे कहे छ-अन्योअन्य एकबीजाने उल्लंघन करता नथी. केवा कारणोथी? ते कहे छ-लंबाईपणे, पहोळाईपणे, संस्थान-पणछ चडावेल धनुष्यना आकारे तेमज परिधिवडे. अहिं द्वंद्व समासमां एकवत्भाव एटले एकवचन करवू, अथवा लंबाइथी बहु समतुल्य छे, ते आ प्रमाणेभरतक्षेत्रपर्यंत आ श्रेणीचौदस य सहस्साई, सयाइं चत्तारि एगसयराइं । भरहद्धत्तरजीवा, छा य कला ऊणिया किंचि ॥३९॥ | चौद हजार, चार सो एकोत्तेर योजन अने उपर किंचित् न्यून छ कला उत्तरभरतार्द्धनी जीवा छे. कला एटले योजननो १. हरकोइ क्षेत्रनी पूर्वथो पश्चिम सुधीनी उत्कृष्ट-बधारेमा वधारे लंबाई ते 'जीवा' कहेवाय छे. X॥११८॥ AKKAKKKKKXXXXXXXXXXXXxxxx For Private and Personal Use Only
SR No.020691
Book TitleSthanang Sutram Sanuvadasya
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorAbhaydevsuri
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages377
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size19 MB
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