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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ******* www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पुव्वं सुयपरिकम्मियमतिस्स जं संपयं सुयाईयं । [] सुयनिस्सियमियरं, पुण अणिस्सियं मइचउकं ( तं ) ॥ १७ ॥ आ गाथानो भावार्थ कहेलो छे. 'सुए' त्यादि, 'अत्थोग्गहे ' त्ति अर्यते-जे जणाय अथवा अर्थ्यते - अन्वेषण कराय ते अर्थ. ते सामान्यरूप, सर्व विशेषोनी अपेक्षा विना कथन करवा योग्य रूपादि पदार्थनुं अवग्रहण - प्रथम ज्ञान ते अर्थावग्रह. जे विकल्प रहित ज्ञान छे ते दर्शन कहेवाय छे. जे एक समयवाळो अर्थावग्रह छे ते नैश्वयिक छे अने व्यवहारी अर्था वग्रह 'आ शब्द छे' इत्यादि कथन करनार छे ते अंतर्मुहूर्त्त कालप्रमाणवाळो छे. आ अर्थावग्रह, इंद्रियो अने मन संबंधथी छ प्रकारे छे. दीवावडे घडानी जेम जेवडे पदार्थ जणाय छे ते व्यंजन, उपकरणेंद्रिय अथवा शब्दादिपणाए परिणत भाषावर्गणादि द्रव्यना समूहरूप छे तेथी व्यंजन- उपकरण इंद्रियवडे शब्दादिपणार परिणत द्रव्यरूप जे व्यंजनोनो अवग्रह ते व्यंजनावग्रह. अथवा व्यंजन एटले (श्रोत्रादि) इंद्रिय अने शब्दादि द्रव्यनो संबंध भाष्यकार कहे छे जिज जेणऽत्थो, घडोव्व दीवेण वंजणं तो तं । उवगरणिदिय सदा-दिपरिणयव्त्रसंबंधो ॥ १८ ॥ आ गाथानो भावार्थ कहेलो छे. आ व्यंजनावग्रह, मन अने चक्षुवर्जित इंद्रियोनो चार प्रकारे थाय छे, कारण के मन अने नयनने अप्राप्त ( संबंध विना ) अर्थनुं जाणवापणुं छे अर्थात् मन अने नयन अप्राप्यकारी छे, श्रोत्र, प्राण, रसना अने स्पर्श १५ For Private and Personal Use Only *********
SR No.020691
Book TitleSthanang Sutram Sanuvadasya
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorAbhaydevsuri
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages377
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size19 MB
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