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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रधानपणाने लईने, भव ए ज हे निमित्त जेने तेने भवप्रत्यय एवो व्यपदेश कराय छे. ए ज कथननो भाष्यकारे आक्षेप[ दोष]पूर्वक परिहार (निराकरण) करेल हेओहीखओवसमिए,भावे भणितोभवो तहोदइए।तो किह भवपच्चइओ, वो जुत्तोऽवही दोण्हं ? ॥१२॥ अवधिज्ञान, क्षयोपशमभावमां कहेल छे अने भव, उदयिक भावमां कहेल छे, तो देव अने नारक ए बन्नेनुं अवधिज्ञान, भवप्रत्ययिक कहेवू कई रीते योग्य कहेबाय ? आ आक्षेप(दोष)नो अहिं परिहार करे छ सोऽवि हु खओवसमिओ, किन्तु स एव उ खओवसमलाभो । तमि सइ होइऽवस्सं, भण्णइ भवपच्चओ तो सो ॥१३॥ ते [देव-नारकर्नु ] अवधिज्ञान पण क्षयोपशमथी ज थाय छे, परंतु तेवा क्षयोपशमनो लाभ, ते देव-नारकनो भव होते छते अवश्य ज थाय छे ते कारणथी ते अवधि भवप्रत्ययिक कहेवाय छे. यतः-कर्मना क्षयोपशम वगेरे शुं भवादिनिमित्तवाळा छे ? ए प्रश्ननो उत्तर कहे छेउदयक्खयखओवसमो-वसमावि अजं कम्मुणो भणिया।दव्वं खेत्तं कालं, भवं च भावंच संपप्प॥१४॥ कर्मनो जे उदय, क्षय, क्षयोपशम अने उपशम कहेलो छे ते द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव अने भाव ए पांचने प्राप्त करीने थाय छे. वळी अवधिज्ञानावरणनो क्षयोपशम थये छते जे थयेलुं ते क्षयोपशमिक अवधिज्ञान छ (१३-१४-१५), 'मण XKKXXXKXX-RRRRRRRR RRRRRRR. KXXXXXXXXXXXXXX For Private and Personal Use Only
SR No.020691
Book TitleSthanang Sutram Sanuvadasya
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorAbhaydevsuri
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages377
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size19 MB
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