SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ७६ ॥ www.kobatirth.org करीने [ अर्थात् तेनुं स्वरूप न समजीने ] आत्मा, जिनेश्वरकथित धर्मने सांभळवानी इच्छावडे सांभळवानो लाभ प्राप्त करे नहिं. ते आ प्रमाणे- आरंभाः - खेती वगेरेद्वारा पृथ्वी वगेरेना जीवोना उपमर्द्दनरूप आरंभोने अने ' परिग्रहाः ' - धर्मना साधन सिवाय धन, धान्य वगेरे परिग्रहोने, अहिं एकवचन प्रकम ( नियम ) छते पण व्यक्तिनी अपेक्षाए बहुवचन करेल छे. सूत्रमां ' चेव ' शब्द निश्चयात्मक अने समुच्चयार्थमां पोतानी बुद्धिवडे जाणवा ( १ ), केवलां - शुद्ध सम्यक्त्वने अनुभवे, अथवा विभक्तिना परिणामथी शुद्ध बोधिवडे बोध्य - जाणवा योग्य जीवादि वस्तु प्रत्ये श्रद्धा करे ( २ ), द्रव्यथी मस्तकना लोचवडे अने भावथी कषायादिने दूर करवावडे मुंड थईने गृहथी नीकळीने 'केवलां' ए शब्दनो अहिं संबंध होवाथी केवल परिपूर्ण अथवा निर्मल प्रवज्याने पामे ( ३ ), एवी रीते पूर्व जेम जोडेल छे तेम पछीना वाक्यमां ' दो ठाणाइ' इत्यादि वाक्य कहेवुं. ब्रह्मचर्येण - अब्रह्मना विरामवडे वास- रात्रिमां सूनुं, अथवा ब्रह्मचर्यमां वास-वस ते ब्रह्मचर्यवास, तेने करे- सेवे (४), संयमेन - पृथिवीकायिक वगेरेनी रक्षारूप लक्षणवडे आत्मा प्रत्ये संयम करे (५), संवरेण - आश्रवना निरोधरूप लक्षणवडे आश्रवना द्वारोने बंध करे (६), केवलं - परिपूर्ण - पोताना सर्व विषयाने ग्रहण करनार - 'आभिणिबोहिनाणं ' त्ति अर्थने सन्मुख, अविपर्यय होवाथी नियत, अशंसय होवाथी बोध-स्वभावरूप जाणवुं ते अभिनिबोध, ते ज आभि१, अभि=अर्थने सन्मुख, नि=नियत अने बोध = संशय रहित, एने स्वार्थमां इक प्रत्यय लागवाथी आभिनिबोधिक शब्द थाय छे. अहिं प्रत्येक शब्द अर्थ करवायो विपर्यय, अनव्यवसाय ( अनिश्चित अने संशय ) दोषनुं निवारण करेल छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ***** २ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ आरंभपरि ग्रहात्यागे न धर्मश्रव णादिज्ञानान्तं ६४ सूत्रम् ॥ ७६ ॥
SR No.020691
Book TitleSthanang Sutram Sanuvadasya
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorAbhaydevsuri
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages377
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy