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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥६ ॥
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ईरेइ विसेसेण व, खिवइ कम्मा गमयइ सिवं वा । गच्छइ अतेण वीरो,स महं वीरो महावीरो। ११४ ||१ स्थानात्रण भुवनमां यश प्रसिद्ध होवाथी महायशवाळा अथवा कषायादि वैरीना सैन्यना पराजयथी विक्रांत-पराक्रमवाळा ते वीर
ध्ययन (११३) ११४ मी गाथानो भावार्थ कहेवायेले छे. आ अवसर्पिणीमां चोवीश तीर्थकरोने विषे छल्ला तीर्थकर, सिद्ध-कृतार्थ
स्कंधविशेष थया, बुद्ध-केवलज्ञानवडे जाणवा योग्य( पदार्थ )ने जाणनार, मुक्त-कर्मथी मुकायेला, 'यावत् ' शब्दथी ' अंतकडे ' जेणे स्य एकत्वम् भवनो अंत कर्यो छे ते अंतकृत, 'परिनिब्बुडे' परिनिर्वृत-कर्मकृत विकारना विरहथी शांत थयेला, शुं कहेलं (प्राप्त) थाय छे ? ४५२-५६ 'सव्वदुक्खप्पहीणे '-शरीरादिना सर्वे दुःखो जेना नाश थया छे ते सर्वदुःखप्रक्षीण अथवा पहीण. सर्व ठेकाणे बहुव्रीही
सूत्राणि समासमां तांतनो जे परनिपात छे ते अहिताग्न्यादि गणथी थाय छे. अहिं तीर्थंकरोने विषे महावीरनु ज मोक्षगमनमा एकपणुं
छे पण ऋषभादि जिनोनु एकपणुं नथी, कारण के दश हजार वगेरे मुनिओना परिवारवडे तेओर्नु सिद्धपणुं थयेलुं छे.कडं छे के| एगो भगवं वीरो, तेत्तीसाएँ सह निव्वुओ पासो । छत्तीसएहिं पंचहि,सएहिं नेमी उ सिद्धि गओ ॥११५४
एकाकी भगवान् महावीर. तेत्रीश मुनिओनी साथे पार्श्वनाथ सिद्ध थया अने पांचसो छत्रीस मुनिओनी साथे नेमीश्वर भगवान् मोक्ष गया (११५) इत्यादि । (सू० ५३) वीर एकाकी मोक्ष पाम्या ए कडं. सिद्धिक्षेत्रनी नजीकमां अनुत्तर
१. टीकामा 'त्ति ' शब्द लेवाची अहि भाष्यमां आ प्रमाणे संबंध छे. २. बाकीना तीर्थंकरोतुं वृत्तांत आवश्यकनियुक्ति वगेरे शास्त्रथी जाणी लेवु..
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