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वायेल तत्त्वानुं श्रद्धान थाय छे त्यारे मिश्रश्रद्धानवडे आ जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि थाय छे. ते जीव अंतर्मुहूर्त पर्यंत मिश्रदृष्टिपणे रहे छे. त्यारबाद अवश्य सम्यक्त्वपुंजने अथवा मिथ्यात्वपुंजने पामे छे. सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि अने मिश्रदृष्टिवडे विशेषित अन्य दंडक कह्यो. दंडकमां नारक अने दश असुरादि ए इग्यारने पदोने विषेत्रण दृष्टि छ, आथी कधु छे के–' एवं जाव थणिये 'त्यादि. पृथ्वी आदि पांच दंडकमां एक मिथ्यात्वदृष्टि ज छे. ते कारणथी पृथ्वी आदिने मिथ्यात्ववडे ज कथन करायेल छे. कह्यु छ के–'चोद्दसतससेसयामिच्छ 'त्ति चौदे गुणस्थानकवाळा त्रस जीवो छ, स्थावरो तो मिथ्यादृष्टिवाळा ज छे. वेइंद्रिय आदि त्रण दंडकनां जीवोने मिश्राट नथी, कारण के संज्ञि जीवोने ज मिश्रदृष्टिनो सद्भाव छ; तेथी तेओने विषे सम्यग्दृष्टि अने मिथ्यादृष्टिपणाए ज व्यपदेश करेल छे. एवी रीते तेइंदियाणपि चरिंदियाणंपित्ति द्वीन्द्रियनी माफक बे दृष्टिना कथनवडे वर्गणानुं एकपणुं कहे. पंचेंद्रिय तिथंच आदि पांच दंडकोमा दर्शन (दृष्टि) त्रणं पण छ, तेथी त्रण प्रकारे पण तेनुं कथन छे. आकारणथी जकडं छ-'सेसा जहा नेरइय'त्ति अर्थात् जेवी रीते नारकना दंडकमां वर्गणा कहेली छे तेम कहेवी. वळी दंडक पर्यत आ सूत्र-'एगा सम्मद्दिहियाणं वेमाणियाणं वग्गणा, एवं मिच्छदिट्टियाणं, एवं सम्मामिच्छद्दिहियाणं' अहिं सुधी कहे छे.-'जाव एगा सम्मामिच्छे' त्यादि ३ । 'एगा कण्हपक्खियाणं' इत्यादि कृष्णपाक्षिक अने शुक्लपाक्षिकनां लक्षण कहे छे:
१. संज्ञि पंचेंद्रिय जीवने त्रण दृष्टि होय छे अने असजिने मिश्रदृष्टि न होवाथो टीकामा ' अपि ' शब्द ग्रहण करेल छे.
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