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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सो तीए सहिउ पंचप्पयार, उवभुंजइ विसय अणन्नसार । अइनिचलु पालइ जिणह धम्मु, दूरेण विवजइ पावकम्मु ॥ १९ ॥ कालक्कमेण विसहय विरत्तु, पवज लेइ सुपसंतचित्तु । तवचरणेहिं झोसिउ पावकम्मु, पञ्चक्खु विरायइ नायधम्म ॥२०॥ अह ससहरनिम्मलु पाविवि केवलु, पडिबोहिवि चिरु भवजणु । सिवभइह नंदणु भवभयमहणु, वच्चइ निवइ वरभवणु ॥२१॥ इय परदारनिवित्तीमित्तंपि अणुवयं पवन्नमिमं । एवंविहोत्तरोत्तरकालाणनिबंधणं होइ ॥ २२ ॥ भणियं चउत्यणुव्वयमेत्तो पंचमगमाणुपुबीए । सयलपरिग्गहपरिमाणकरणविसयं पयंपेमि ॥१॥ दुविहो परिग्गहो सो थूलो सुहुमो उ तत्थ सुहुमो य । परकीएसुवि वत्थुसु ईसि मुच्छाइपरिणामो ॥२॥ थूलो पुण नवमेओ धणे य धन्ने य खेत्तवत्थूसु । रुप्पसुवन्नचउप्पय दुप्पयकुविएसु मुणिअबो ॥३॥ इय नवभेयपरिग्गहपरिमाणं भावसारमादाय । पंचइयारविवजणपरायणो सावगो मइमं ॥४॥ खेत्ताइहिरन्नाईधणाइदुपयाइकुप्पमाणकमे । जोयणपयाणबंधणकारणभावहिं नो कुणइ ॥५॥ जो पुण अइलोभवसा भणिजमाणोवि गुरुजणेण बहुं । थेवंपि नो परिग्गहपरिमाणवयं पवजेइ ॥६॥ AAMSAXAT94-9 For Private and Personal Use Only
SR No.020689
Book TitleMahavir Chariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayvardhanvijay
PublisherAhmedabad Paldi Merchant Society Jain Sangh
Publication Year1999
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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