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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीगुणचंद महावीरच ० ८ प्रस्तावः ॥ २९९ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir णत्थं तणपूलयपडलं पज्जालिउमारद्धा, सो य मच्छो तेण परितत्तसरीरो झडत्ति निवुड्डो अच्छाहे जले, एवं हारियं जाणवत्तं वलदेवेण, परितुट्ठा निजामगा, पत्ता य कमेण नियनगरं, तओ तेहिं पडिरुद्धं जाणवत्तं, समुत्तारिऊण तीरे मुक्को बलदेवो, पारद्धो अणेण झगडओ निजामगेहिं समं, जहा असच्चा इमे मच्छहारिणो चिलाया मए विजियत्ति काऊण आडंबरमुवदंसंतित्ति भणिऊण बला चेव भंडमुत्तारिउमारद्धो, निजामगेहिं वाहिया नरवइणो आणा, न ठाइ बलदेवो, तओ रायाणं उबडिया दोवि पक्खा, तेर्सिं च परोप्परं विवदंताणं परमत्थमवियाणिऊण भणियं रन्ना - अरे ! एत्थ ववहारे को सक्खी ?, निजामगेहिं भणियं-देव ! अत्थि चेव सक्खी, परं नियसहोयरमुवेक्खिऊण किं अम्हाणं सक्खित्तणं करिस्सर १, राइणा भणियं को पुण सो ?, तेहिं भणियं सच्चसेट्ठी, एवं वृत्ते एगंते ठाऊण पुच्छिओ सो रन्ना कज्जपरमत्थं, तास सच्ची परिभावइ किं करेमि एव ठिए ? । जइ अवितहं न जंपेमि होइ ता मे वयकलंको ॥ १ ॥ जर पुण जहेब वित्तं तव साहेमि ता लहू भाया । पावइ अणत्थमत्थो जाई हीरइ पसिद्धीवि ॥ २ ॥ ता दोनिवि गरुयाई आवडियाई इमाई कज्जाई । एक्कंपि परिचहउं न तरामि करेमि किं इहि ? ॥ ३॥ अहवा इहलोक कहं च चिरकालपालियं नियमं । गुरुमूले पडिवन्नं जाणतोऽहं विरामि ? ॥ ४ ॥ किं एतो अइपावं जं जाणतावि भवअसारत्तं । पडिसिद्धेवि अत्थेसु मोहओ संपयति ॥ ५ ॥ For Private and Personal Use Only द्वितीयेऽणुव्रते सत्य - श्रेष्ठिकथा. ॥ २९९ ॥
SR No.020689
Book TitleMahavir Chariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayvardhanvijay
PublisherAhmedabad Paldi Merchant Society Jain Sangh
Publication Year1999
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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