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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyarmandie CALCCASSACROSSESSMSUCCC तिपयाहिणिऊण परेण भत्तिभारेण वंदिउ नाहं । सट्ठाणेसु निसीयंति ते य सद्धम्मसवणत्थं ॥१०॥ उप्पायपलयसत्तासमलंकियसयलवत्थुपरमत्थं । भवाणं भवभयहरं तत्तो वागरइ भुवणगुरू ॥ ११॥ वागरमाणस्स य भुवणबंधुणो मुणियसयलभावोऽवि । भवजणवोहणत्थं गोयमसामी इमं भणइ ॥ १२ ॥ भयवं! भवस्स पुणरुत्तजम्मजरामरणसोगपउरस्स । किं मूलकारणं जमिह नेव जीवा विरजंति ? ॥१३॥ न य उजमंति तुह पायपउमपूयणपमोक्खवावारे । नो देससच्चविरइओ भावसारं च गिण्हति ॥ १४ ॥ भणियं जिणेण गोयम ! मिच्छत्तं अविरई य मूलमिह । तदणुगया नो जीवा भवभमणाओ विरजंति ॥ १५॥ | नो बहु मन्नंति जिणाहिपि गिण्हंति नेव विरइंपि । मिच्छत्तमजमत्ता किंवा कुवंति नोकजं ॥ १६ ॥ जइ तेवि कम्मगठिं सुनिट्ठरं भिदिऊण सम्मत्तं । पावंति कहवि ता भवसंवासाओ विरजति ॥ १७ ॥ अन्भुजमंति जिणसाहुपूयणाइम्मि धम्मकजंमि । नवरं तेऽवि न विरई घेत्तुं पारेति कम्मवसा ॥ १८॥ जं देसओवि सविसेसकम्मक्खयउयसमेण सा होइ । किं पुण पहाणमुणिजणकरणुचिया सबओ चेव ॥ १९ ॥ ता गोयमेण भणियं भयवं! सम्मत्तरयणलाभाओ। अमहियं गुणठाणं एवं सइ विरइभावोऽयं ॥२०॥ ता साहेसु जयगुरु ! पउरगेहवावारवावडमणाणं । संभवइ देसओविहु विरई कहमिव गिहत्थाण ? ॥२१॥ तो जयगुरुणा कहियं पंचण्डं तिण्ह वा चउण्हं वा । गहणे वयाण एगस्स वावि सा होइ निदोसा ॥ २२ ॥ SANSACCALCCASSAMABAR For Private and Personal Use Only
SR No.020689
Book TitleMahavir Chariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNayvardhanvijay
PublisherAhmedabad Paldi Merchant Society Jain Sangh
Publication Year1999
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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