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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्यशासन-परीक्षा "स्त्रीमुद्रा झषकेतनस्य महतीं सर्वार्थसंपत्करी, ये मोहादवधीरयन्ति कुधियो मिथ्याफलान्वेषिणः । ते तेनैव निहत्य निर्दयतरं मुण्डीकृता लुम्चिताः केचित्पञ्चशिखीकृताश्च जटिनः कापालिकाश्चापरे । पयोधरभरालसाः स्मरविधूर्णितार्वेक्षणाः, क्वचित्सलयपञ्चमोच्चरितगोतसङ्कारिणोः । विहाय रमणीरमूरपरमोक्षसौख्यार्थिना महो जडिमडिण्डिमो विफलभाण्डपाखण्डिनाम् ॥' इनमें से पहला पद्य भर्तृहरिके शृङ्गारशतकमें पाया जाता है। [घ ] निम्न पद्य भी सत्यशासन-परीक्षा तथा यशस्तिलक दोनोंमें पाया जाता है "तदहजस्तनेहातो रक्षो दृष्टेर्भवस्मृतः । भूतानन्वयनासिद्धः प्रकृतिज्ञ: सनातनः ॥ [ङ ] चार्वाक सिद्धान्तोंको विद्यानन्दिने जिस तरह उपन्यस्त किया है ठीक उसी तरह सोमदेवने भो। निःसंदेह सोमदेवने विद्यनन्दिके ग्रन्थोंका गहन अध्ययन किया होगा अन्यथा भाव, भाषा और अर्थका इतना साम्य सम्भव न था। [आ ] जैनेतर ग्रन्थ[१] छान्दोग्योपनिषद् और सत्यशासन-परीक्षा । ___ विद्यानन्दिने छान्दोग्योपनिषद्के निम्न लिखित दो वाक्य सत्यशासन-परीक्षामें उद्धृत किये हैं १. “एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म [ छान्दो० ६।२।१] परमब्रह्माद्वैतशासन-परीक्षाके पूर्वपक्षमें परमब्रह्मको अद्वैतता सिद्ध करनेके लिए यह वचन प्रमाणत्वेन उपन्यस्त किया गया है। २. "अशरीरं वा वसन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशतः ।" [ छान्दो० ८।१२।१] वैशेषिकशासन-परीक्षामें ईश्वर कर्तृत्वका विचार करनेके प्रसंगमें यह वाक्य उद्धृत किया गया है। [२] मैत्र्युपनिषद् और सत्यशासन-परीक्षा सत्यशासन-परीक्षाके परमब्रह्माद्वैत प्रकरणमें मैत्र्युपनिषद्का निम्न वाक्य उद्धृत किया गया है ___ "सर्व वै खल्विदं ब्रह्म' [ मैञ्यु० ४।६ ] यद्यपि यह वाक्य अद्वैतकी सिद्धिके लिए ही प्रयुक्त होता है, फिर भी विद्यानन्दिने इसे द्वैतसिद्धिके समर्थन में उद्धृत किया है। विद्यानन्दिका तर्क यह है कि 'सर्वम्' अर्थात् संसार तो प्रसिद्ध है; किन्तु 'ब्रह्म' प्रसिद्ध नहीं है; इस तरह प्रसिद्ध और अप्रसिद्धका द्वैत हो जायेगा। १. सत्य०, चार्वाक० ६४; यश० उत्त०, पृ० २५२ २. शृङ्गार० श्लो० ७९ ३. 'जीवः' यश । ४. सत्य०, चार्वाक० ६ १८; यश० उत्त० २५७ ५. विशेष विवरण-यश० उ० पृ० २५२-५३; सत्य० चार्वाक० ६ १-२ ६. सत्य. परमब्रह्म० ६ ५ ७. सत्य० वैशे०६ २७ ८. सत्य० परमब्रह्म० ६२४ For Private And Personal Use Only
SR No.020664
Book TitleSatyashasan Pariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyanandi Acharya, Gokulchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1964
Total Pages163
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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