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भाषा अने छन्द-सामान्य रीते जैन संस्कृतिए प्राकृतभाषा अने आर्याछन्दने मुख्य स्थान आप्यु छे एटले ते संस्कृतिना अनुयायिओए पोतानी मौलिक अने महत्त्वभरी दरेक कृतिओने प्राकृतभाषामां अने आर्याछन्दमां ज बद्ध करी छे. ते ज रीते आचार्य श्रीदेवेन्द्रसूरिए पोताना कर्मग्रन्थोनीरचना पण प्राकृतभाषामां अने आर्याछन्दमांज करी छे.
विषय-१ पहेला कर्मग्रन्थ तरीके ओळखाता कर्मविपाक नामना कर्मग्रन्थमा ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय आदि आठ कर्मो, तेना भेद-प्रभेदो अने तेनुं स्वरूप अर्थात् विपाक अथवा फळनुं वर्णन दृष्टान्त पूर्वक करवामां आव्युं छे.
२ वीजा कर्मस्तव नामना कर्मग्रन्थमा श्रमण भगवान महावीरनी स्तुति करवा द्वारा चौद गुणस्थानोनुं स्वरूप अने ए गुणस्थानोमा प्रथम कर्मग्रन्थमा वर्णवेल कर्मोनी प्रकृतिओ पैकी कई कई कर्मप्रकृतिओनो बन्ध, उदय, उदीरणा अने सत्ता होय छे एनुं निरूपण करवामां आव्युं छे.
३ त्रीजा बन्धस्वामित्व नामना कर्मग्रन्थमां गत्यादिमार्गणास्थानोने आश्री जीवोना कर्मप्रकृतिविषयक बन्धस्वामित्वनुं वर्णन करवामां आव्युं छे. बीजा कर्मग्रन्थमा गुणस्थानोने आश्रीने बन्धनुं वर्णन करवामां आव्युं छे ज्यारे आ कर्मग्रन्थमां गत्यादिमार्गणास्थानोने ध्यानमा राखी बन्धस्वामित्वनो विचार करवामां आव्यो छे.
४ चोथा षडशीति नामना कर्मग्रन्थमां जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान, भाव अने सङ्ख्या ए पांच विभाग पाडीने तेनुं विस्तारथी विवेचन करवामां आव्युं छे. आ पांच विभाग पैकी त्रण विभाग साथे बीजा विषयो पण वर्णववामां आव्या छे. (क) जीवस्थानमा गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बन्ध, उदय, उदीरणा अने सत्ता आ आठ विषयो चर्चवामां आव्या छे. (ख) मार्गणास्थानमा जीवस्थान, गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या अने अल्पबहुत्व ए छ विषयो वर्णव्या छे. अने (ग) गुणस्थानमां जीवस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बन्धहेतु, बन्ध, उदय, उदीरणा अने सत्ता आ नव विषयो वर्णव्या छे. पाछला बे विभागो अर्थात् भाव अने सङ्ख्यानुं वर्णन कोई विषयथी मिश्रित नथी. __५ पांचमो शतक नामनो कर्मग्रन्थ जो के आ विभागमा प्रकाशित करवामां नथी आव्यो तेम छतां प्रसङ्गोपात तेना विषयनो निर्देश करी देवो अनुचित नहि ज गणाय. आ कर्मग्रन्थमां, पहेला कर्मग्रन्थमां वर्णवेल कर्मप्रकृतिओ पैकीनी कई कई प्रकृतिओ ध्रुवबन्धिनी, अध्रुवबन्धिनी, ध्रुवोदया, अध्रुवोदया, ध्रुवसत्ताका, अध्रुवसत्ताका, सर्व-देशघाती, अघाती, पुण्यप्रकृति, पापप्रकृति, परावर्त्तमानप्रकृति अने अपरावर्तमान प्रकृतिओ छे एनुं निरूपण करवामां आव्युं छे. ते पछी उपरोक्त प्रकृतिओ पैकीनी कई कई कर्मप्रकृतिओ क्षेत्रविपाकी, जीवविपाकी, भवविपाकी अने पुद्गलविपाकी छे एनुं विभागवार वर्णन करवामां आव्युं छे. आ पछी उपरोक्त कर्मप्रकृतिओना प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, रसबन्ध अने प्रदेशबन्ध ए चार प्रकारना बन्धनुं स्वरूप अने ते समजमां आवे ते माटे
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