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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ दशम अध्याय ॥ पान ७९९ ॥
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आगे आठमा अध्याय में बंधतत्वका निरूपण है। तहां मिथ्यात्वआदि बंधके कारण कहि अर बंधका स्वरूप कह्या। आगें तिसके च्यारि भेद कहि अर तिनमें पहला भेद प्रकृतिबंध तिसकी मूलप्रकृति आठ उत्तरप्रकृति एकसौ अठतालीस तिनके न्यारे न्यारे नाम कहे। आगे उत्कृष्ट जघन्य आठ कर्मनिकी स्थिति न्यारी न्यारी कही। बहुरि अनुभवबंधका स्वरूप कह्या। बहुरि प्रदेशबंधका स्वरूप कह्या । आगें पुण्यपापका प्रकृतिनिके भेद कहि आठमा अध्याय पूर्ण कीया ॥८॥
आगे नवमां अध्यायमैं संवरतत्व अर निर्जरातत्वका निरूपण है। तहां आश्रवके निरोधकू संवर कहा है। सो संवर गुप्ति आदि कारणनिकरि होय है ऐसैं कहि गुप्तिका स्वरूप समितिका स्वरूप भेद धर्मके भेद अनुपेक्षाके भेद परीपहका विशेषकरि भेदनिका कथन अर चारित्रके भेदनिका निरूपण कीया। आगें तपकरि निर्जरा कही। तिस तपके बारह भेदके उत्तरभेद बहुरि ध्यानतपके च्यारि भेदमें अशुभ आर्तरौद्र शुभ धर्मशुक्ल तिनके भेदनिका विशेषनिरूपण कीया। आगें सम्यग्दृष्टि आदि दशस्थान असंख्यातगुणी निर्जराके कहि । अर पुलाकआदि पांचप्रकार मुनिनिका निरूपण करि नवा अध्याय पूर्ण कीया ॥९॥ . आगे दशमां अध्यायमें मोक्षतत्वका निरूपण है। तहां केवलज्ञानकी उत्पत्तिका विधान कहि तिसपूर्वक मोक्षका स्वरूप कसा । सो द्रव्यभावरूप सर्वकर्मका अभावकरि मोक्ष होय तब जीवका ऊर्ध्वगमनस्वभाव है। सो ऊर्ध्वगमनकरि लोकके अंत जाय तिष्टै ताके हेतु दृष्टांत कहे। धर्मास्तिकायविना अलोकमें गमन नाही ऐसे कह्या । बहुरि कथंचित अपेक्षा सिद्धनिमें भेद कहनेका सूत्र कहि दशमां अध्याय पूर्ण कीया ॥१०॥
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