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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ दशम अध्याय ॥ पान ७८७ ॥ 440repertosakxsakss | काल तिसविर्षे उपज्या तिस कालमें तथा अन्यकालमें सिद्धगति नाही पावै है । बहुरि कोई देवादिकका ले गया सर्वही कालनिमें उत्सर्पिणी अवसर्पिणीमें सिद्धगति पावै है । बहुरि गतिविर्षे प्रत्युत्पन्नग्राहीनयकी अपेक्षा सिद्धगतिहीविर्षे सिद्ध होय है । बहुरि भूतग्राहीनयकी अपेक्षा मनुष्यगतिते सिद्धगति पावै है । बहुरि लिंगविर्षे प्रत्युत्पन्ननयकी अपेक्षा वेदरहित सिद्धगति है। बहुरि भूतग्राहीनयकी अपेक्षा भाववेद तीनांहीकरि क्षपकश्रेणी चढि मोक्ष पावै है । द्रव्यवेदकरि पुरुषवेदहीकरि पावै है । अथवा निग्रंथलिंगहीकरि सिद्धगति होय है । तथा भूतनय अपेक्षा सग्रंथलिंगकरिभी होय है ॥ बहुरि तीर्थ दोयप्रकार । केई तो तीर्थंकर होय मोक्ष पावै अर केई सामान्यकेवली होय मोक्ष पावै । सोभी दोयप्रकार । केई तो तीर्थकर विद्यामान होय तिस समय मोक्ष पावें । केई जिसकाल तीर्थंकर विद्यमान न होइ तिस कालमें मोक्ष पावै । बहुरि चारित्रविर्षे प्रत्युत्पन्ननयअपेक्षा तौ चारित्रनिका अभावहीकरि सिद्धि होय है । तहां चारित्रका नाम नाहीं । बहुरि भूतग्राहीनयकी अपेक्षा अनंतर अपेक्षा तो यथाख्यातचारित्रकारही मोक्ष पावै हैं । बहुरि अंतरकी अपेक्षा तो | सामायिक छेदोपस्थापना सूक्ष्मसांपराय यथाख्यात इन च्यारिनितें कहिये । तथा कोईकै परिहार atsapproatsastertoisexstoertisextortoisserts 0 4 For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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