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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । दशम अध्याय || पान ७८४ ॥ संसारविषै तिष्ठता जो जीव तानें मुक्तिकी प्राप्तिके अर्थ बहुतवार परिणाम चितवन अभ्याकरि रह्या था सो मुक्ति भये पीछे तिस अभ्यासका अभाव भया, तौऊ पहले अभ्यासपूर्वक मुक्तजीव कै गमन निश्चय कीजिये है | बहुरि जैसें मृत्तिकाका लेपतें तूंबा भन्या होय उतरि जलविषै पड्या पीछें जलके संबंध माटी जाय तब हलका होय जलके ऊपर आय जायः तैसें कर्मके भारकरि दव्या परवंश भया आत्मा तिसकर्मके संबंध संसारविषै नियमकरि पड्या है । जब कर्मका मिलाप दूरि होय तब ऊर्ध्वही गमन होय । बहुरि जैसैं एरंडका बीज एरंडका डोडामें बंधाणरूर था, जब डोडा सूकिकरि तिडके, तबंधाणमेंं उछार ऊर्ध्व चलैः तैसें मनुष्य आदि भवकी प्राप्ति करणहारी जे गति जाति नाम आदि सकलकर्मी प्रकृति ताका बंधाण में आत्मा है, जब इस बंधका छेद होय, बत मुक्तजीव कै मनका निश्चय होय है । बहुरि जैसैं सर्वतरफ गमन करनहारा जो पवन ताका संबंध करिरहिन जो दीपकी शिखा लोय सो अपने स्वभावतें ऊंचीही चढैः तैसें मुक्तजीव भी सर्वतरफ गमनरूप विकारका कारण जो कर्म ताके दूरि होतें अपना स्वभाव ऊर्ध्वगमनरूप है तातें ऊंचाही गमन करें है ॥ आगे पूछे हैं, जो, मुक्त भये आत्मा ऊर्ध्वगमनस्वभावी है, तौ लोकके अंत ऊर्ध्व For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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