SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 796
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir INCODesertebeatherapresortants ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ दशम अध्याय ॥ पान ७७८ ॥ ऐसें इहांताई तो तरेसठि प्रकृतिका क्षय भया। तापीछे अयोगकेवली चौदहवां गुणस्थानमें | पिचासी प्रकृति क्षय होय हैं, तामें अंत्यका पहला जो उपांत्य समय तावि बहत्तरी प्रकृतिका क्षय होय है । तिनके नाम दोय वेदनीयमेंसू एक तौ वेदनीय, देवगति, औदारिक, वैक्रियक, आहारक, तैजस, कार्मण ए पांच शरीर इनके बंधन ५, इनके संघात ५, संस्थान ६, औदारिक वैक्रियक आहारक शरीरके अंगोपांग तीनि ३, संहनन छह ६, वर्ण प्रशस्त अप्रशस्त पांच ५, गंध दोय २, रस प्रशस्त अप्रशस्त ५, आठ स्पर्श ८, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य १, अगुरुलघु १, उपघात १, परघात १, उछ्वास १, विहायोगति प्रशस्त अप्रशस्त २, पर्याप्तक १, प्रत्येकशरीर १, स्थिर अस्थिर २, शुभ अशुभ दोय २, दुर्भग १, सुस्वर दुःस्वर दोय २, अनादेय १, अयश कीर्ति १, निर्माण १, नीचगोत्र १, ऐसें बहत्तरी बहुरि ताके अंत्यसमये तेरा प्रकृतिका क्षय है, तिनके नाम दोय वेदनीयमेसू एक वेदनीय १, मनुष्यगति १, मनुष्यआयु १, पंचेंद्रियजाति १, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य १, त्रस १, बादर १, पर्याप्तक १, सुभग १, आदेय १, यशःकीर्ति १, तीर्थकर १, उच्चगोत्र १ ए तेरह । ऐसें सर्व कर्मका अत्यंत अभाव, सो मोक्ष है ॥ ___ अन्यवादी कोई अन्यथाप्रकार कल्पै सो नाहीं है । बहुरि ऐसें कहनेतें सामर्थ्यतें ऐसाभी | For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy