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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान ६१ ॥ परिहारविशुद्धिवालेकै औपशमिक नांही है, अन्य दोय हैं। सूक्ष्मसांपराय यथाख्यात संयमीनिकै औपशमिक क्षायिक है । संयतासंयतकै अरु असंयतके तीनूंही हैं || बहुरि दर्शनके अनुवादकरि चक्षु अचक्षु अवधिदर्शनवालेके तीनूंही हैं । केवलदर्शनवालोंके क्षायिकही है ॥ लेश्याके अनुवादकरि छहू लेश्यावालोंके तीनूं होय हैं । लेश्यारहितकै क्षायिकही है । बहुरि भव्यानुवादकरि भव्यकै तीनूंही हैं । अभव्यकै नांही है ॥ बहुरि सम्यक्त्वके अनुवादकरि जहां जो सम्यग्दर्शन तहां सोही जाननां ॥ बहुरि संज्ञीके अनुवादकरि संज्ञीनिकै तीनूंही हैं । असंज्ञीनिकै नांही है । दोऊनितें रहितकै क्षायिकही है ॥ आहारकके अनुवादकरि आहारकनिकै तीनूंही हैं । अनाहारकनिकै छद्मस्थकै तीनूंही हैं । केवली समुद्धातसहितकै क्षायिकही है ॥ ऐसे चौदह मार्गणाभेदकरि सम्यग्दर्शनका स्वामित्व कह्या ॥ बहुरि सम्यग्दर्शन काहेकरि उपजै है ? ऐसें पूछे याका साधन कहै हैं ॥ तहां साधन दोय प्रकारका है । अभ्यंतर, बाह्य । तहां अभ्यंतर तौ दर्शनमोहकर्मका उपशम क्षय क्षयोपशम ये तीन हैं । बहुरि वाह्य नारकी जीवनिकै तीसरी पृथिवीताई तो कोई जीवकै जातिस्मरण है, कोईकै धर्मका श्रवण है, कोईके तहांसंबंधी वेदनादुःख है । बहुरि चवथी पृथिवीतें लगाय सातमीताई जातिस्मरण | For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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