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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir aakaaamsereasooraaseerasacrereassertsbrealits ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७६७ ॥ होतेंभी मूर्छा न होती होयगी, तिनके राखनेवालेभी निग्रंथ ठहरेंगे। तातें यह श्वेतांबरादिकका कहना अयुक्त है। जाते विषयका ग्रहण तो कार्य है। अर मूर्छा ताका कारण है। जो बाह्यपरिग्रह ग्रहण करै है, सो मूर्छातें करै है । सो जाका मूर्छा कारण नष्ट होयगा, ताकै बाह्यपरिग्रहका ग्रहण कदाचितही नाहीं होयगा । बहुरि जो विषययहणकू तौ कारण कहै अर मूछाकू कार्य कहै तिनके मतमें विषयरूप जो परिग्रह तिनके न होते मूर्छाका उदय नाहीं सिद्ध होय है । तातें जाके मोहके उदयतें मूर्छा होय है तातें परिग्रहका ग्रहण होय है अर जो आप परिग्रहकू ग्रहण करै है, तातें निर्गथपणा कदाचितही नाहीं है, यह निर्णय है ॥ आगे तिन पुलाकआदि मुनिनिकी फेरि विशेषकी प्रतिपत्तिके अर्थि सूत्र कहै हैं- . ॥ संयमश्रुतप्रतिसेवनातीलिङ्गलेश्योपपादस्थानविकल्पतः साध्याः॥४७॥ याका अर्थ- संयम १, ३रुत २, प्रतिसेवना ३, तीर्थ ४, लिंग ५, लेश्या ६, उपपाद ७, स्थान ८ ए आठ भेदरूप अनुयोग तिनकरि पुलाक आदि निर्ग्रथमुनिनिकू साधणे । तहां पुलाक बकुश प्रतिसेवनाकुशील ए तीनि तौ सामायिक छेदोपस्थापना इन दोय संयमनिवि वर्ते हैं । बहुरि कषायकुशील हैं, ते सामायिक छेदोपस्थापना परिहारविशुद्धि सूक्ष्मसांपराय इन च्यारि संयमनिविर्षे For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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