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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ॥ सर्वार्थसिद्धिपचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७४८ ॥ आगें तीनि ध्यानका तौ निरूपण कीया अब शुक्लध्यानका निरूपण करना सो यह चारिप्रकार कहसी तिनमें आद्यके दोयका स्वामीका निर्देशकै अर्थि सूत्र कहैं हैं॥ शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः ॥ ३७ ॥ याका अर्थ - आद्यके दोय शुक्लध्यान पूर्वके जाननेवालेकै होय हैं। तहां कहेंगे जे च्यारि शुक्लध्यानके भेद तिनमें आदिके दोय ध्यान पूर्वका जाकूं ज्ञान होय ताकै होय है । इहां पूर्वविदशब्दकरि श्रुतकेवली जानना । बहुरि सूत्रमें चशब्द है, ताकरि ऐसा जानना, जो, श्रुतकेवल क धर्मध्यानभी होय है । जातें सूत्रके व्याख्यानतें विशेषकी प्रतिपत्ति होय ऐसा वचन है । तातैं प्रमत्त अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनिभि पूर्वके वेत्ता होय हैं । तिनकै धर्म्यध्यानभी होय है । जातें श्रेणी चढने पहली तौ धर्म्यध्यान है । अरु श्रेणी चढै तब शुक्लध्यान होय है ऐसा व्याख्यान है । तातें शब्दरि श्रुतकेवलीकै प्रमत्तअप्रमत्तविषै धम्यध्यान होय है, ऐसा समुच्चय कीजिये || आगे पूछे है, कि अवशेष दोय ध्यान कौनकै होय ? ऐसें पूछें सूत्र कहै हैं॥ परे केवलिनः ॥ ३८ ॥ याका अर्थ - परे कहतां उत्तर जे दोय ध्यान ते केवलज्ञानीकै होय हैं । तहां जिनके सम For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir -
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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