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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७२१ ॥ ऐसे विनयतपके च्यारि भेद हैं । इहां विनयका अधिकार है । तातें विनयशब्दका यातें ज्ञानविनय दर्शनविनय चारित्रविनय उपचारविनय ऐसें संबंध भया। तहां । मोक्षके अर्थि ज्ञानका ग्रहण अभ्यास स्मरण इत्यादि करणा, सो ज्ञानविनय है। ब. दोषरहित तत्वार्थनिका श्रद्धान करना, सो दर्शनविनय है। बहुरि ज्ञानदर्शनसहि चारित्रविर्षे समाधानरूप चित्तकू कारण, सो चारित्रविनय है। बहरि आचार्यआदि प्रत्य होय तिनकौं देखिकरि उठना तिनके सन्मुख जाना अंजली जोडना इत्यादि उपचारवि परोक्ष होय तो मन वचन कायकरि हाथ जोड नमस्कार करना, गुणका स्तवन कर करना इत्यादिभी उपचारविनय हैं। याका प्रयोजन, जो, विनयतें ज्ञानका लाभ होय है। शुद्धता होय है, भली आराधना होय इत्यादिकके अर्थि विनयकी भावना है ।। आगै वैयावृत्त्यतपके भेदके जाननेकू सूत्र कहै हैं-. ॥ आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्षग्लानगणकुलसङ्घसाधुमनोज्ञानाम् ॥ २४ ॥ याका अर्थ- आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु, । इन दशनिका वैयावृत्य करणा, ऐसें याके दश भेद हैं। इहां विशेषके भेदतें भेद जानने । For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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