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॥ सर्वार्थसिदिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७११ ॥
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| नाही, तथा ऐसेंही परलोकसंबंधी विषयनिका सुखकी अभिलाषरूप स्वर्गआदिका फलकी निदानरूप वांछा जामें नाहीं, अर संयमकी प्रसिद्धि , रागादिकका विनाश, कर्मकी निर्जरा, ध्यानकी प्राप्ति, आगमका अभ्यासकी प्राप्ति इनके अर्थि जो आहार कषायका विषयका त्याग करना, सो अनशन है ॥ १॥ बहुरि संयमकी वृद्धि, निद्रा आलस्यका नाश, वात पित्त कफआदि दोषका | प्रशमन, संतोष, स्वाध्यायआदि सुखतें होना इत्यादिककी सिद्धिके अर्थि आहार थोरा लेना, सो | अवमौदर्य है ॥ २॥ बहुरि मुनि आहारकू जाय तब प्रतिज्ञा करै, जो, एकही घर जावेंगे, तथा | एकही रस्तामें प्रवेश करेंगे, तथा स्त्रीका दीया आहार लेंगे, तथा एकही द्रव्यका भोजन लेंगे | इत्यादिक अनेकरीत हैं; तिसकी प्रतिज्ञा करि नगरमें जाय तिस प्रतिज्ञाकी रीति मिलै तौ ले, ना तरि फिरि आवै, सो वृत्तिपरिसंख्यान तप है। यह आशाकी निवृत्तिके अर्थ है ॥ ३॥
बहुरि इन्द्रियका उद्धतपणाका निग्रह निद्राका जीतना स्वाध्याय सुखतें होना इत्यादिके अर्थि । | घृतआदि पुष्ट स्वादरूप रसका त्याग, सो चौथा रसपरित्याग तप है ॥ ४ ॥ बहुरि शूनास्थानक | | आदि जे एकांत जायगा जहां प्राणीनिकू पीडा न होय तहां संयमी सोवना बैठना आसन करै, | || यातें आपके स्वाध्यायध्यानमें बाधा न होय, ब्रह्मचर्य पालै, स्वाध्यायध्यानकी सिद्धि होय, ऐसे
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