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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir Satalaberdst MARATPATROPRINOPANSIOPORAEOPageRGARIOPARAGAORAN ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ७०७ ॥ चौदहवां गुणस्थानके अंत चारित्रकी पूर्णता भये लगताही मोक्ष होय है। तातें साक्षात्कारण है | ऐसा जनावनेकू न्यारा कह्या है। सो सामायिकका स्वरूप तो पहले श्रावकके सप्तशील कहे तहां कह्याही था। सो दोयप्रकार है, एक तौ नियतकाल दूजा अनियतकाल । तहां कालकी मर्याद करि जामें स्वाध्यायआदि कीजिये सो तो नियतकाल है । बहुरि ईर्यापथआदिविर्षे अनियतकाल है । बहुरि प्रमादके वशतें उपज्या जो दोष ताकरि संयमका प्रबंधका लोप भया होय ताका प्रायश्चित्त आदि प्रतिक्रियाकरि स्थापन करना सो छेदोपस्थापना है । अथवा सामायिकवि अहिंसादिक तथा समित्यादिकका भेद करना सो छेदोपस्थापना कहिये । बहुरि प्राणिपीडाका जहां परिहार ताकरि विशेषरूप जो विशुद्धता जामें होय सो परिहारविशुद्धि कहिये ॥ बहुरि जहां अतिसूक्ष्मकषाय होय सो सूक्ष्मसांपरायचारित्र है। यह दशमा गुणस्थान सुक्ष्मलोभसहित होय है । बहुरि जहां मोहनीयकर्मका सम्पूर्ण उपशम होय, तथा क्षय होय जाय सत्तामेंसूं द्रव्यका कर्म उठि जाय, तहां आत्माका स्वभावकी वीतराग अवस्था होय, सो यथाख्यातचारित्र है । अथवा पहले सामायिकआदि चारित्रके आचरण करनेहारेने याका व्याख्यान || तो कीया अर मोहके क्षयतें तथा उपशमतें पाया नाही, तातें अब कह्या, ताते याका नाम अथा eertobreatmeatherNOARD For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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