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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिदिक्चमिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६९९ ॥ था जो आश्रव, ताके निरोधमें महान संवर होय है ॥ आगें पूछे हैं, जो, ए परीषह जे मुनि संसारके तरनेळू उद्यमी भये हैं तिनकू सर्वही अविशेषफरि आवै हैं, कि किछु विशेष है ? तहां कहै हैं, जो, ए क्षुधाआदि परीषह कहे, ते अन्यचारित्रविौं तौ भेदरूप आवे हैं अर सूक्ष्मसांपराय अर छद्मस्थ वीतरागके तौ नियमकरि जेते होय हैं सो कहै हैं ॥ सूक्ष्मसाम्परायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश ॥ १०॥ याका अर्थ- सूक्ष्मसांपराय संयमीके अर छमस्थ वीतराग संयमीके चौदह परीषह संभवे हैं। क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, देशमशक, चर्या, शय्या, वध, अलाभ, रोग, तृणस्पर्श, मल, प्रज्ञा, अज्ञान ए चौदह परीषह हैं। सूत्रमें चतुर्दशवत्रन है तातें अन्यपरीषहका अभाव जानना । इहां प्रश्न, जो, छद्मस्थवीतरागके तो मोहनीयकर्मका अभाव भया, तातें तिसके उदयसंबंधी नाग्न्य अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, सकार, पुरस्कार, अदर्शन ए आठ परीषह नाही | होय हैं, तात् इहां तौ चौदहका नियम युक्त है, बहुरि सूक्ष्मसांपरायकेवि मोहका उदयका सद्भाव all है, सो चौदहका नियम कैसे बणे ? ताका समाधान, जो, तहां केवल लोभसंचलनकषायका उदय है, सो अतिसूक्ष्म है, तातें यहभी समस्थवीतरागसारिखाही है, तातें तहांभी चौदहका | For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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