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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६८६ ॥ ర క రకుల SAGARNAGASPASSPARRORRIAGARRANGOPnorgaon कहिये ॥ याका ऐसा विशेष, जो, देशमशक आदि जीव वाधा करै, ताके विद्या मंत्र औषधि होय हैं, सो मुनिनिके तिसकी वांछा नाहीं हो है। जो मरण होय तौभी स्वरूपहीमें लीन होय हैं। इहां दृष्टांत ऐसा, जो, जैसे बलवान हस्ती शबुकी सेनाका संहारप्रति उद्यमी होय तब मदकरि अंधा हूवा संता शत्रुके प्रेरे जे अनेकशस्त्र तिनके घातकरिभी उलटा न मुडै निर्विन जीतिकाही ग्रहण करै। तैसें कर्मकी सेनाळू जीतनेकू उद्यमी भये मुनि ते ऐसे परीषहते उलटे न मु. हैं। स्वरूपसाधनतें परिणाम न चिगै हैं ॥५॥ ____जातरूप धरनेकू नाग्न्य कहिये । ऐसा कलंकरहित नमपणा धारे हैं, जो अन्यकरि धाऱ्या न जाय। बहुरि नाम रहा कोईही न चाहै है । कैसा है नमपणा? काहूपै किछु याचन परिग्रहकी रक्षा जीवनिकी हिंसा आदि दोषनिकरि रहित है । बहुरि निग्रंथपणारौं मोक्षकी प्राप्तिका अद्वैतसाधन है। || यामें किछु बाधा नाहीं है । ऐसें नमपणाकू धारते मुनिनिकै स्त्रीनिरूपकू देखिकरि मनविर्षे किछुभी || विकार नाही उपजै है । जातें ताकू अत्यंत अशुचि दुगंध निंद्यरूप विचार है । एते दिन ब्रह्मचर्यकी भावना करें हैं । तामैं किंचित्भी दूषण न लगावै हैं। अखंड ब्रह्मचर्य पाले हैं। ऐसें अचेलव्रतधारणकू नाग्न्यपरीषहका सहन कहिये ॥ ftertainerspeeches For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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