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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६८४ ॥ paproxenoNOPRIETPROINNARASRANASPORAasan कनेके त्यागी हैं । बहुरि पक्षीकीज्यों अनियत है बैठना बसना जिनकै । बहुरि पवनकरि वनके बसनेकरि रुक्ष सचिक्कण प्रकृतिविरुद्ध आहारके निमित्तकरि ग्रीष्मके आतापकरि पित्तज्वर अनशन| आदि तपकरि इनकारणनिकरि उपजी जो शरीर इन्द्रियनिविर्षे दाह पीडा तौऊ जल पीवनेकी इच्छा| प्रति नाही आदया है, ताका प्रतीकार इलाज ज्यां । तृषारूपी अमिकी ज्वालाकू धैर्यरूपी नवा | घडाविर्षे भन्या जो शीतल सुगंध समाधिरूपी जल ताकरि शमन करै है बुझावै है । ऐसें मुनिराजनिकै तृषाका सहना सराहिये है ॥ २॥ शीतके कारण निकट होते तिसका इलाजकी वांछारहित संयम पालना, सो शीतसहन है । | कैसे हैं मुनि ? छोड्या है वस्रआदि वोढना पहरना ज्यां । बहुरि पंखीकीज्यौं नाहीं निश्चय कीया | है वसनेका घर ज्यां । वृक्षके मूल तथा चौडे मार्गमें शिलातल आदिवि पालाका पडना शीतल पवनका चलना आदि होते तिसका इलाजकी प्राप्ति नाहीं चाहे हैं। पहले गृहस्थपनेमें शीतके उपचारके कारण भोगे थे तिनकू यादि नाहीं करै हैं । ज्ञानभावनारूपी जो गर्भागार कहिये वीचका शाल बरोबरादिक ताविर्षे वसते तिष्ठै हैं । तिनके शीतवेदनाका सहना सराहिये ॥३॥ दाहके इलाजकी वांछारहित चारित्र पालना उष्णसहन है । कैसे हैं मुनि ? नाहीं है पवन For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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