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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kallassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६७४ ॥ शरीर अन्य है। बहुरि शरीर तौं इन्द्रियगोचर है, मूर्तिक कहै । मैं अतीन्द्रिय हौं, अमूर्तिक हों। बहुरि शरीर तौ अज्ञानी जड़ है। में ज्ञानरूप चेतन हौं। बहुरि शरीर तौ अनित्य है । मैं नित्य हौं । बहुरि शरीर तो आदि अंतसहित है। मैं अनादि अनंत हों। मेरे शरीर तौ या संसारमें भ्रमते लाख निवीते अतीत भये । मैं अनादित था सोही हौं । शरीरनितें न्याराही हौं । ऐसें शरीरतेंही मेरै अन्यपणा है, तो बाह्यपरिग्रहनिकी कहा कथा ? ऐसें चितवन करते या आत्माके मनविर्षे समाधान होय है । शरीरआदिविर्षे वांछा नाही उपजै है । ताते यथार्थज्ञानभावनापूर्वक वैराग्य वध संतें अंतरहित जो मोक्षका सुख , ताकी प्राप्ति होय है । ऐसें अन्यत्वानुप्रेक्षा है ॥ बहुरि यह शरीर है सो अत्यंत अशुचि दुर्गंध शुक्रशोणितकी योनि है, अशुचिहीकरि वध्या है, विष्ठाका स्थानकीज्यों अपवित्र है, उपरितें चाममात्रकरि आच्छादित है-ढक्या है, अतिदुर्गंध रसकरि झुरते जे नीझर तिनका बिल है, याके आश्रय. अन्यवस्तु होय ताकुंभी अंगारेकीज्यों शीघ्रही तत्काल आपसारिखा अपवित्र करै है, स्नानसुगंधका लेपन धूपका वास सुगंधमाला आदिकरिभी याका अशुचिपणा दूरि न होय है । बहुरि याकू सम्यग्दर्शनआदिकरि भाईयै तौ जीवके अत्यंत शुद्धता प्रगट करै है। ऐसे याका यथार्थस्वरूपका विचारना सो अशुचित्वानुप्रेक्षा है। For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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