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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६६८ ॥ ऐसें उत्तमक्षमादिकके गुण अर तिनके प्रतिपक्षी क्रोधादिकके दोषका चितवन कीये क्रोध आदिका अभाव होते तिनके निमित्ततें कर्मका आश्रव होय था, ताकी निवृत्ति होतें बड़ा संवर होय है। यह धर्म अविरतसम्यग्दृष्टि आदिकें जैसे क्रोधादिककी निवृत्ति होय, तैसें यथासंभव होय है । अर मुनिनिके प्रधानपणे हैं । अगें शिष्य कहै है, जो क्रोधआदिका न उपजना क्षमादिकका आलंबनतें होय है ऐसा कह्या, सो यह आत्मा क्षमादिककू कैसैं अवलंबन करै ? जाते क्रोधादिक न उपजै । ऐसें पूछे, कहै है, जो, जेसें लोहका पिंड तपाया हूवा अमितें तन्मय होय है, तैसें क्षमादिकतें तन्मय. होय जाय, तब क्रोधआदि न उपजै । यामैं जो आत्महितका वांछक है सो बारह अनुप्रेक्षाका बारवार चिंतवन करै ॥ ॥ अनित्याशरणसंसारकत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभधर्म स्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥७॥ याका अर्थ- अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा' लोक, बोधिदुर्लभ, धर्मस्वाख्यातत्व इन बारहनिका वारंवार चितवन करना, सो अनुप्रेक्षा है । तहां | उपात्त कहिये लगे हुए अर अनुपात्त कहिये बाह्य जे द्रव्य तिनके संयोगते वियोग होना, सो | For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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