SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 682
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६६४ ॥ | है किंचन कहिये किछूभी जामें ताकू अकिंचन कहिये, तिसका भाव अथवा कर्म होय सो आकि चन्य ऐसा याका अर्थ है । बहुरि पूर्व स्त्रीनिके भोग किये थे तिनकू यादि न करना, स्त्रीनिकी कथाका श्रवण न करना, स्त्रीनिकी संगति जहां होय तहां शयन आसन न करना, ऐसें ब्रह्मचर्य परिपूर्ण ठहरै है । अथवा अपनी इच्छातें स्वच्छन्दप्रवृत्ति निवारण गुरुके निकट रहना, सो ब्रह्मचर्य है । जातें ब्रह्म कहिये गुरु तिनिविर्षे चरण कहिये तिनके अनुसार प्रवर्तना ऐसाभी ब्रह्मचर्यका अर्थ होय है ॥ ऐसें दशप्रकार धर्म हैं । इन भेदनिमें कोई गुप्तिसमितिविर्षे गर्भित हैं तोऊ फेरि कहनेते पुनरुक्तपणा नाही होहै । जातें इनके संवर धारनेकी सामर्थ्य है । तातें धर्म ऐसी संज्ञा सार्थिक है । अथवा गुप्त्यादिकी रक्षाके अर्थि ऐर्यापथिक, रात्रिक, देवसिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, उत्तमस्थान, अकाल ऐसें सातप्रकार अतिक्रमणका उपदेश है । तैसेंही उत्तमक्षमादिक दशप्रकार धर्मभी न्यारा उपदेश है। तातें पुनरुक्त नाहीं है । बहुरि इनकै उत्तमविशेषण है सो या लोकसंबंधी दृष्टप्रयोजनके निषेधकै अर्थि है । बहुरि इन धर्मनिके गुणकी बहुरि इनके प्रतिपक्षी जे क्रोधआदि दोष तिनकी भावनातें ए धर्म संवरके कारण होय हैं । सोही कहिये है । तहां व्रतकी अर शीलकी रक्षा या Satarreritsab kertairtesterdistortisertisterities For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy