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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acquaric Cate www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir || सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६६१ ॥ बहुरि परीक्ष्या है विचान्य है उभयप्रचार कहिये मलमूत्रकी बाधा जामें, बहुरि मांज्या है। धोया है अगिला पिछला अंगका प्रदेश जामें, बहुरि आचारसूत्र में कह्या तैसें देशकालकी प्रवृत्तिका ज्ञान ताकरि है प्रवीणता जामें, बहुरि लाभ अलाभ मान अपमानविषै समान हैं मनकी वृत्ति जायें, बहुरि लोकनिंद्य कुलका वर्जना ताविषै तत्पर है, बहुरि चन्द्रमाको गतिकीज्यों हीनाधिक गृहविषै प्रवेशका है अविशेष जामें, बहुरि दीन अनाथननिके अर्थ दानशाला जहां होय बहुरि विवाह तथा यज्ञ जहां होय ऐसे घरनिविषे प्रवेशका है वर्जना जामें, दीनवृत्तिकार रहित है, बहुरि प्रासु आहारका है हेरना जानें, बहुरि आगमकथित निर्दोष आहारकरि पाया है प्राणयात्रामात्र फल जामें ऐसी भिक्षाशुद्धि है | चारित्ररूप संपदा है सो यातें संबंधरूप है । बहुरि गुणनिकी संपदाकीज्यों साधुनिकी सेवाका कारण है । सो यऊ भिक्षा पांचप्रकार नामकरि प्रसिद्ध है, गोचरी अक्षमृक्षण उदरामिप्रशमन भ्रमरहार गर्तपूरण । तहां लाभ अलाभ तथा सुरसविरस आहारविष समान संतोष जामें होय तातैं तौ भिक्षा नाम है ॥ बहुरि जैसे गऊ घास चरै, तहां घास गेरनेवाला स्त्री पुरुष क्रीडासहित सुंदर आभूषण आदि धारे गेरे तो गऊ ताके अंगका सुंदरपणाकूं नाहीं निरखै, तिस घासहीके खानेविषै दृष्टि रहै, अथवा For Private and Personal Use Only extre •
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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