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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra expeedre www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । नवम अध्याय ॥ पान ६५९ ।। प्राप्त होय तौ तार्ते आप अन्यक्षेत्रमें टल जाय तिन जीवनिकूं पीडा न दे, ताकें उत्कृष्ट अपहृत संयम है | बहुरि कोमल मयूरपिच्छिका आदि उपकरण तिस जीवकूं टालै सरकायदे, ताकें मध्यम अपहृतसंयम है । बहुरि अन्य उपकरणतैं टालै ताकूं बाधा न होय तैसें करै सो जघन्य अपहृतसंयम है । बहुरि देशक्षेत्रकालका विधानका ज्ञाता परके उपरोध कहिये वशर्तें छोड्या है काय जानें बहुरि गुप्तिरूप निरोधै है मन वचन काय जानें ऐसा मुनिके रागद्वेषका न उपजना, सो उपेक्षासंयम है । भावार्थ ऐसा, जो कोई दुष्ट उपसर्ग आदि करे प्राणभी ले तो ध्यानकरि तिष्ठै तहां किंचिन्मात्र भी रागद्वेष न उपजावै ताकै उपेक्षासंयम है ॥ इहां अपहृत संयम पालने के अर्थि आठप्रकार शुद्धिका उपदेश है। तहां भावशुद्धि, कायशुद्धि, विनयशुद्धि, ईर्यापथशुद्धि, भिक्षाशुद्धि, प्रतिष्ठापनशुद्धि, शयनासनशुद्धि, वाक्यशुद्धि ऐसें । तहां कर्मका क्षयोपशमतें तौ उपजी बहुरि मोक्षमार्गकी रुचिकरि भई है प्रसन्नता जामें, बहुरि रागादिक के उपद्रव रहित होय, सो भावशुद्धि है । याके होतैं आचार प्रकाशरूप सोहता होय है । जैसें सवारि उज्जल करी भीतिविषै चित्राम करे, सो सोभायमान होय; तैसें सोहे है । बहुरि जो निरावरण रहै, आभरणादिकका सवारनेंकरि रहित होय, जैसें जन्मतैं बालक होय तैसें मलकरि For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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