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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ नवम अध्याय ॥ पान ६४६ ॥ अनंतानुवांधिचतुष्क इन पांच प्रकृतिनिका उपशमकरि प्रथमोपशमसम्यक्त्वकू ग्रहण करै है । तहां सत्तामें तिष्ठता जो मिथ्यात्वका उदय ताका अनुभाग घटाय तीनि भाग करै हैं । केताएक द्रव्य तौ मिथ्यात्वरूपही रहै, अर केताएककू सम्यमिथ्यात्वरूप करै, केताएककू सम्यक्त्वप्रकृतिरूप करे, पीछे तहां अंतर्मुहूर्तकाल भोगिकरि कै तौ सम्यक्त्वप्रकृतिका उदय आवनेतें क्षायोपशमिकसम्यक्त्वी होय के सम्यग्मिथ्यात्वके उदय आवनेरौं सम्यमिथ्यादृष्टि होय के पहले अनंतानुबंधीका उदय आवनेते सासादनसम्यग्दृष्टि होय कै मिथ्यात्वका उदय आवनेतें मिथ्यादृष्टि होय, ऐसें अनादिमिथ्यादृष्टिकी व्यवस्था है। बहुरि सादिमिथ्यादृष्टि होय सोभी ऐसेंही तीनूं करणनिका प्रारंभ करि सम्यक्त्वकू परसै है । विशेष इतना, जो, याकै दर्शनमोहकी तीनि प्रकृतिका सत्व होय है । सो सात प्रकृतिका उपशम करि सम्यक्त्व पावै है । ऐसें जाके अनंतानुबंधीका उदय मिथ्यात्वके पहले आवै सो सम्यक्त्वकी विराधनासहित भया । ए जघन्य एकसमय उकृष्ट छह आवलीपर्यंत बीचमें रहै , तेतें सासादनगुण स्थान नाम पावै है । याके अनंतर मिथ्यात्वका अवश्य उदय आवै है, तब मिथ्यादृष्टि होय है। | बहुरि सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका उदयतें सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होय है । याका नाम मिश्रभी •r/Dreateseartlinkeatireareshvertistereasaratis For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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