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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ६३६ ॥
हैं । तिर्यंच आयु मनुष्यआयु देवआयु ऐसें । तहां शुभनामप्रकृति तैंतीस हैं। मनुष्यगति, देवगति पंचेन्द्रियजाति, पांच शरीर, तीनि अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रवृषभनाराचसंहनन, प्रशस्तवर्ण रस गंध स्पर्श ए च्यारि, मनुष्यदेवगत्यानुपूर्व्य दोय, अगुरुलघु, परघात, उच्छवास आतप, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, सुभग, शुभ, सुस्वर, आदेय, यशःकीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर ऐमें बहुरि उच्चगोत्र सातावेनीय ऐमें व्यालीस प्रकृति पुण्यकर्मकी हैं | आगे पापप्रकृतिनिके जाननेकूं सूत्र कहै हैं
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॥ अतोऽन्यत् पापम् ॥ २६ ॥
याका अर्थ - एकही जे पुण्यप्रकृति तिनतें अवशेष रही ते पापप्रकृति हैं । इस पुण्यनामा कर्मप्रकृति के समूह अन्य कर्म हैं सो पाप ऐसा कहिये । ते कौन कौन ? ज्ञानावरण पांच, दर्शनावरण नव, मोहनीयकी छवीस, अंतरायकी पांच, नरकगति, तीर्यंचगति, जाति व्यारि, संस्थान पांच, संहनन पांच अप्रशस्त वर्ण गंध रस स्पर्श ए च्यारि, नरकगत्यानुपूर्व्य, तिर्यंचगत्यानुपूर्व्य, उपघात, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति ऐसें चौतीस नामकर्मकी प्रकृति बहुरि असातावेदनीय नरकआयु
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