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॥सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ६१६ ॥
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केतक काल पीछे नमि जाय । बहुरि मंद काष्ठसारिखा होय, जो नमनेका कारण मिलै थोरेही कालमें नमि जाय । बहुरि मंदतर वेलिके तंतुसारिखे होय, तत्काल नमि जाय । ऐसें मानका विशेष है ॥
बहुरि मायाका विशेष, जो परकू ठगनेके अर्थि परतें छिपाय मन वचन कायका कुटिलपणाका विचार, सो माया है। याकेभी तीव्रमंदके च्यारि दृष्टान्त हैं। तहां तीव्रतर बांसके विडाके जडसारिखी जाका परकू ज्ञान होय सकै नाहीं अर पैला ठिगाय जाय सो बहुत कालताई प्रवर्ते कहि न मिटें । बहुरि तीन मीढेके सींगसारिखी, जाकी वक्रता थोडी, थोडे कालमें मिटि जाय । बहुरि मंद गोमूत्रकसारिखी, जाके दोय च्यारि मोडेरूप वक्रता, सो अल्पकालमें मिटि जाय । बहुरि मंदतर खुरवा तथा लिखनेकी कलमसारिखी, जाकी एकमोडारूप वक्रता, तरत मिटि जाय । ऐसें मायाका विशेष है।
बहुरि लोभका विशेष, तहां अपने उपकारका कारण जो द्रव्य आदिक वस्तु ताकी वांछा अभिप्रायमें रहै सो लोभ है, याकेभी तीव्र मंदके च्यारि दृष्टांत हैं । तहां तीव्रतर किरिमिची रंग सारिखा बहुतकालमेंभी जाका मिटना कठिन । बहुरि तीव्र काजलके रंगसारिखा, जो थोडेही कालमें मिटि जाय । बहुरि मंद कर्दम लग्या ह्वा सारिखा, सो अल्पकालमें जाका रंग उतरि जाय। बहुरि | मंदतर हलदके रंगसारिखा, तुरत उडि जाय । ऐसा लोभका विशेष है । ऐसें दर्शनमोहकी तीनि
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