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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir e ఆడవకులనుండassessertioned ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ६११ ॥ आगें, तीसरी प्रकृति जो वेदनीय ताकी उत्तरप्रकृतिके भेद कहनेकू सूत्र कहै हैं - ॥सदसवेद्ये ॥८॥ याका अर्थ- वेदनीयकी साता असाता ए दोय प्रकृति हैं। तहां जाके उदयतें देवादिगतिनिविर्षे शरीरसंबंधी तथा मनसंबंधी सुखकी प्राप्ति होय सो सातावेदनीय है । सत् कहिये प्रशस्त सराहनेयोग्य जहां वेदनेयोग्य होय सो सदेद्य कहिये । बहुरि जाका फल नारक आदि गतिविर्षे अनेकप्रकार दुःख होय, सो असातावेदनीय है। असत् कहिये अप्रशस्त वेदनेयोग्य होय सो असद्धेद्य है ॥ __आगें चौथा मोहनीयकर्मकी उत्तरप्रकृतिके भेदके कहनेकू सूत्र कहै हैं दर्शनचारित्रमोहनीयाकषायकषायवेदनीयाख्यास्त्रिहिनवषोडशभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वतदुभयान्यकषायकषायौ हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीपुंनपुंसकवेदा अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोधमानमायालोभाः ॥९॥ ____याका अर्थ- दर्शनमोहनीय चारित्रमोहनीय अकषायवेदनीय कषायवेदनीय ए च्यारि | | तिनकी संख्या तीनि दोय नव सोलह इनका यथासंख्य संबंध करि लेणा । तहां दर्शनमोहनीयके | zeroerosouzsverteerders wat For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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