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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचानका पंडित जयचंदजीकृता ॥ प्रथम अध्याय ॥ पान ४४ ॥ प्रकार है । तहां ज्ञानात्मक तो पंचप्रकार ज्ञान है, सो आगै कहसी । बहुरि शदात्मक है सो विधिनिषेधस्वरूप है । तहां कोई शद्ध तो प्रश्नके वशते विधिविही प्रवते है । जैसे समस्तवस्तु अपने द्रव्य क्षेत्र काल भावकरि अस्तित्वस्वरूपही है । तथा कोई शब्द निषेधविर्षे प्रवर्ते है । जैसे समस्त वस्तु परके द्रव्य क्षेत्र काल भावकरि नास्तित्वस्वरूपही है । तथा कोई शब्द विधिनिषेध दोऊविर्षे प्रवर्ते है । जैसें समस्त वस्तु अपने तथा परके द्रव्य क्षेत्र काल भावकरि अनुक्रमतें अस्तिनास्ति स्वरूप है । तथा कोई शब्द विधिनिषेध दोऊ• अवक्तव्य कहै है । जैसे समस्त वस्तु | अपने वा परके द्रव्य क्षेत्र काल भावकरि एक काल अस्तित्वनास्तित्वस्वरूप है । परंतु एककाल दोऊ कहै जाते नांही, तातें अवक्तव्यस्वरूप है । तथा कोई शब्द विधिनिषेधळू कमकरि कहै है । एककाल न कह्या जाय है तातें विधिअवक्तव्य निषेधअवक्तव्य तथा विधिनिषेधअवक्तव्यविर्षे प्रवर्ते है । जैसे समस्तवस्तु अपने चतुष्टयकरि अस्तित्वरूप है, वक्तव्य है, एककाल स्वपरचतुष्टयकरि अवक्तव्यस्वरूप है । ताते अस्तिअवक्तव्य ऐसा कहिये । तथा ऐसही परके चतुष्टयकरि नास्तिस्वरूप वक्तव्य है । एककाल स्वपरचतुष्टयकरि अवक्तव्य है । तातें नास्तिअवक्तव्य ऐसा कहिये । तथा | ऐसेही कमकरि अस्तिनास्तिस्वरूपकरि वक्तव्य है । एककाल दोऊकरि अवक्तव्य है ऐसे For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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