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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 4taarkertubertoleriteras ॥ सर्वार्थसिदिषचनिका पंडित जयचंदजीकत्ता ॥ अहम अध्याय ॥ पान ६.० ॥ वशतें विभक्ति पलटि लीजिये, इस न्यायतें कर्मशदके षष्ठीविभक्तीकरि संबंधका अर्थ कीया है । बहुरि पुद्गल कहनेतें यह जानिये, जो, कर्म है सो पुद्गलपरमाणुका स्कंध है । सो पुद्गलस्वरूपही है। यामें पुद्गलकै अरु कर्मकै तादात्म्य जनाया है। जातें केई वैशेषिकमती आदि कहे हैं, जो, कर्म आत्माहीका अदृष्ट नामा एक गुण है, ताका निराकरण भया । जातें जो केवल आत्माहीका | गुण होय तौ संसारका कारण होय नाहीं । बहुरि आदितें ऐसी क्रिया कही सो हेतुकें अर हेतु. मानके भावके प्रगट करनेकू कही है। हेतु तो मिथ्यादर्शन आदि पहले कहे ते अर हेतुमान पुद्गलकर्मका बंध है। ताका कर्ता जीव है। यातें ऐसा अर्थ सिद्ध होय है, जो, मिथ्यादर्शन आदिका आवेशतें आला सचिकण भया जो आत्मा ताकै सर्वतरफकरि योगनिके विशेषतें सक्षम अर एकक्षेत्र अवगाहकरि तिष्ठते जे अनंतानंत पदलके परमाणु तिनका विभागरहित मिलि जाना सो बंध है, ऐसा कहिये है ॥ जैसें भाजनके विशेष जे हांडी आदिक तिनवि क्षेपे जे अनेक रस बीज फूल फल तिनका मदिरारूप परिणाम होय है, तैसें आत्माविर्षे सामिल तिष्ठते जे पुद्गल ते योगनिकरि बँचि हुये योग कषायके वशतें कर्मभावरूप परिणामळू प्राप्त होय हैं, ऐसा जानना । बहुरि सूत्रमें स ऐसा ఉstanులననలవకాలకుండనుందరకుండును For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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