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॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ५९० ॥ || है । बहुरि मिथ्यात्व नैसर्गिक परोपदेशपूर्वक दोयप्रकार कह्या, सो तौ नैसर्गिक तौ एकेन्द्रियआदि | सर्वही संसारी जीवनिकै अनादित प्रवर्ते है, याकू अगृहीतभी कहिये । अर जो परके उपदेश” प्रवर्ते सो परोपदेशपूर्वक है, ताकू गृहीतभी कहिये । ताकै क्रियावादादिक च्यारि भेद तीनिसै तरेसठि भेद कहे । ते कैसे हैं सो कहिये है । तहां प्रथमही क्रियावादके एकसौ असी भेद हैं। तहां मूलभेद पांच काल ईश्वर आत्मा नियति स्वभाव ऐसें । बहुरि आपते परतें नित्यपणाकरि अनित्यपणाकरि ऐसे च्यारि एक एकपरि लगाय अर जीव अजीव आश्रव संवर निर्जरा बंध मोक्ष पुण्य पाप ऐसें नवपदार्थ तिनपरि न्यारे न्यारे लगाईये सो ऐसें इनकू परस्पर गुणते पांचकू से च्यारिकरि गुणे वीस भये, बहुरि नवकरि गुणे एकसौ असी भये, याका उदाहरण जीवपदार्थ आपही तें कालकरि अस्तित्व कीजिये है, जीवपदार्थ परही कालकरि अस्तित्व कीजिये है, जीवपदार्थ | कालकरि नित्यत्वकरि अस्तित्व कीजिये है, जीवपदार्थ कालकरि अनित्यत्वकरि अस्तित्व कीजिये । | ऐसेंही अजीवादिपदार्थनिपरि लगावना, तब कालकरि नवपदार्थनिपरि छतीस भंग भये । ऐसेंही |
ईश्वर आत्मा नियति स्वभाव इन च्यारिनिकरि छतीस छतीस होय, तब सारे एकसौ असी | भंग क्रियावादके होय हैं ।।
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